Sunday, September 7, 2014

हिचकी

किस्त - 6

छः

पुस्तक में पुराने खेवे के ऐसे कांग्रेसी नेता के व्यक्तित्व का लेखा-जोखा था, जो इस नयी जोड़-तोड़ की राजनीति के पुरोधा माने जाते थे। नेहरू युग के अवसान के बाद जब विचार की जगह वोट की राजनीति का दौर आया तो हरिश्चन्द्र दत्त बड़थ्वाल ने ही सबसे पहले बदलती हुई धारा को पहचाना था और राजनीति की शतरंज में प्यादों को फ़र्ज़ी और फ़र्ज़ी को प्यादा बनाने वाले कुशल खिलाड़ी बन कर उभरे थे। मुख्यमन्त्री से ले कर केन्द्रीय मन्त्री रहे थे और आपात काल के बाद कांग्रेस की भारी पराजय को पहले ही से भाँप कर समय रहते उससे अलग हो गये थे। 
उसके बाद हालाँकि उन्होंने कई पार्टियाँ बनायी थीं और समीकरण बैठाये थे, लेकिन एक पैंतरेबाज़ की अपनी पुरानी छवि के चलते वे उत्तरोत्तर हाशिये की तरफ़ सरकते चले गये थे और प्रधानमन्त्री बनने की हसरत को मन ही में सँजोये, एक दिन अचानक दिल के दौरे से दिवंगत हो गये थे। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि उनके सिखाये-बढ़ाये या उनकी दिखायी राह पर चलने वाले कई नेता, जो हर लिहाज़ से उनसे कमतर थे, उनके सामने और उनके बाद प्रधानमन्त्री पद को सुशोभित करने में सफल रहे थे। यह बात दीगर है कि इनमें से अधिकांश के कार्यकाल कुछ दिनों से ले कर कुछ महीनों तक ही सीमित रहे थे।
हेरम्ब त्रिपाठी ने बड़थ्वाल जी पर केन्द्रित पुस्तक को विशेष सावधानी बरतते हुए तैयार करवाया था। कारण एक नहीं, अनेक थे। पहला, नितान्त व्यक्तिगत था। वर्षों पहले, अपने मुख्य मन्त्रित्व काल में हरिश्चन्द्र दत्त बड़थ्वाल ने हेरम्ब के पिता को, जो काशी विद्यापीठ में संस्कृत के प्रवक्ता थे, अपनी छत्र-छाया में ले कर एक-एक सीढ़ी चढ़ाते हुए, गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति के आसन तक पहुँचा दिया था। हेरम्ब त्रिपाठी ने भले ही क्रान्ति से मोहभंग होने के बाद बड़थ्वाल जी के पास लौटने की बजाय उनके एक प्रखर सत्तासीन विरोधी से सम्पर्क सूत्र बनाये थे, लेकिन उसके पिता उसे बड़थ्वाल जी के उपकारों को भूलने न देते थे। 
दूसरा कारण यह था कि बड़थ्वाल जी ने ही मीडिया के महत्व को सबसे पहले पहचाना था। अपना राजनैतिक जीवन उन्होंने पौड़ी गढ़वाल के एक चौपतिया स्थानीय साप्ताहिक के संवाददाता के रूप में शुरू किया था और  फिर इलाहाबाद में पढ़ाई करते हुए वे एक स्थानीय हिन्दी दैनिक से जुड़ गये थे जिसे हिन्दुस्तान के एक बड़े कांग्रेस-समर्थक व्यापारी घराने ने राष्ट्रीयतावादी आन्दोलन के ज़माने में निकाला था और जिसकी बड़ी ख्याति थी। यहीं वे कांग्रेस के निकट आ कर यदा-कदा आनन्द भवन जाने लगे थे और यों नेहरू परिवार के निकट आ कर राजनीति की ओर मुड़ गये थे। 
बाद के वर्षों में वे अक्सर पत्रकारिता के अपने इन ‘सुनहरे’ दिनों को बड़े हसरत-भरे भावुक अन्दाज़ में याद करते, ख़ास तौर पर जब वे पत्रकारों के बीच होते,‘आप लोग, जो आज आधुनिक मशीनों से सजे-बजे अख़बारों में काम करते हैं, कभी कल्पना भी नहीं कर सकते कि हम लोगों ने उस ज़माने में, जब हमारा मुक़ाबला उपनिवेशवादी फ़िरंगी हुकूमत से था, किन हालात में पत्रकारिता की थी। पत्रकारिता एक मिशन थी, मिशन। इन्हीं हाथों से,’ वे नाटकीय अन्दाज़ में अपने हाथ आगे बढ़ाते हुए जोड़ते, ‘मैंने गेली में टाइप सजाते हुए बेलन से प्रूफ़ निकाले हैं, रात-रात भर बैठ कर ख़बरें और सम्पादकीय लिखे हैं, सर्दियों में मीलों चल कर अख़बार बाँटे हैं।’
वे जानते थे कि व्यावहारिक राजनीति में मीडिया कितना और किन विविध रूपों में सहायक हो सकता है, इसलिए पत्रकारों के लिए कॉलोनियाँ बनवाने से ले कर उन्हें अन्य सुविधाएँ दिलवाने तक - बड़थ्वाल जी ने अपनी दूरन्देशी से काम लिया था। यह अकारण नहीं था कि जब-जब उन्हें ज़रूरत पड़ी, मीडिया ने भी नमक का हक़ अदा करने में कोताही नहीं बरती थी। 
फिर, वोट की राजनीति करने का संकल्प करते ही बड़थ्वाल जी ने अपने समर्थकों की फ़ौज तैयार करनी शुरू कर दी थी। इस पुरानी कहावत में यक़ीन करते हुए कि मुँह खाता है तो आँखें शरमाती हैं, उन्होंने मौक़ा-मुहाल देख कर या चतुराई से अवसर बना कर ढेरों लोगों को सरकारी, अर्द्ध-सरकारी प्रतिष्ठानों में नौकरियाँ दिलायी थीं। ये सभी लोग उनके सत्ता में न रहने के बाद भी उनका दम भरते थे। 
और अन्तिम कारण यह था कि वे कांग्रेसी वंशवाद के प्रबल समर्थकों में से थे।
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वे न केवल अपनी पत्नी को, बल्कि अपनी बेटी, दोनों बेटों और बहुओं को भी राजनीति में ले आये थे और उन्हें प्रान्तीय या केन्द्रीय समितियों में फ़िट कर दिया था। बड़ा बेटा तो कुछ ही दिनों में ऊब कर फिर से वकालत की तरफ़ मुड़ गया था और अन्ततः हाईकोर्ट का जज बन गया था, जिसमें कहना न होगा, बड़थ्वाल जी के राजनीतिक रसूख़ का कम हाथ न था, मगर परिवार के बाक़ी लोगों ने राजनीति को वैसे ही अपनाया था, जैसे किसी निजी व्यापारिक उद्योग को घराने के अन्य सदस्य अपना लेते हैं।
 दिलचस्प बात यह है कि बड़थ्वाल जी ने जब कांग्रेस से दूरी बना ली थी, तब भी उनका शेष परिवार निष्ठापूर्वक कांग्रेसी बना रहा था ताकि सत्ता से होने वाले सारे फ़ायदे पिछले दरवाज़े से परिवार को मिलते रहें और वक़्त आने पर धूम-धाम के साथ बड़थ्वाल जी की वापसी के लिए ज़मीन तैयार की जा सके। बड़थ्वाल जी के आकस्मिक निधन के बाद कुछ समय तक उनकी पत्नी शारदा जी ने कांग्रेस की कार्यकारिणी और संगठन के महत्वपूर्ण पद सँभाले थे। जब कुछ ही वर्ष बाद एक कार दुर्घटना में वे जाती रहीं तो उनकी बेटी ने पूरमपूर राजनीति में उतरने का फ़ैसला किया।
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डॉ0 रमा बड़थ्वाल पन्त ने विवाह के बाद अपने पैत्रिक नाम के आगे अपने पति का पैत्रिक नाम जोड़ कर यह साफ़ कर दिया था कि वे न केवल वक़्त की माँग को देखते हुए महिला-अधिकारों के प्रति सचेत हैं, बल्कि अपने पिता के राजनीतिक उत्तराधिकार की वारिस भी हैं। 
वे न केवल अपने छोटे भाई राजीव से, जो छुटभैयों की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाया था, कहीं ज़्यादा पढ़ी-लिखी थीं, लखनऊ के प्रतिष्ठित समाज-शास्त्र अध्ययन एवं शोध संस्थान की निदेशक थीं, बल्कि महिला-सुलभ होशियारी से काम लेते हुए कांग्रेस के अखिल भारतीय महिला संगठन की अध्यक्ष बन गयी थीं, जहाँ से कार्यकारिणी में उनकी माँ द्वारा रिक्त किया गया आसन महज़ एक क़दम की दूरी पर था। 
उनके पति एक सीधे-सादे व्यक्ति थे। राजनीति से कोसों दूर। वे लखनऊ विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर थे और उनका ज़्यादा समय इतिहास की रस्साकशी में हिस्सा लेने की बजाय, उसके अध्ययन में गुज़रता था। रमा जी - जैसा कि डॉ0 रमा बड़थ्वाल पन्त - अपने परिचितों में जानी जातीं, अपने दिवगंत पिता की राजनीतिक विरासत को ले कर कुछ ज़्यादा ही सम्वेदनशील थीं और इधर के दिनों में जब से कांग्रेसी हलक़ों में प्रान्तीय चुनावों की सफलता के बाद नयी हलचल नज़र आने लगी थी, रमा जी की सम्वेदनशीलता कुछ और बढ़ गयी थी।
यही कारण है कि हेरम्ब त्रिपाठी की पुस्तक-श्रृंखला में अपने पिता पर केन्द्रित पुस्तक के लेखन से ले कर उसकी साज-सज्जा तक हर पक्ष में रमा जी ने अपने तीखे, हठी स्वभाव को क़ाबू में रखते हुए भरपूर सहयोग दिया था। लेखक को आवश्यक सन्दर्भ ग्रन्थों से ले कर बड़थ्वाल जी के पत्र, चित्र, अख़बारों की पुरानी कतरनें और अन्य काग़ज़ात उपलब्ध कराने तक। उस सोमवार को भी अगर हरीश अग्रवाल ने अपने प्रकाशन संस्थान के दफ़्तर पहुँचते ही नन्दू जी की जो टेर लगानी शुरू कर दी थी, उसके पीछे रमा जी का ही हाथ था।
 हुआ यह था कि पुस्तक की पाण्डुलिपि में कई बार संशोधन करवाने और कुछ अध्यायों को तीन-तीन, चार-चार बार लिखवाने के बाद आख़िरकार जब रमा जी ने उसे पास कर दिया था तो हेरम्ब त्रिपाठी ने ही नहीं, हरीश अग्रवाल और नन्दू जी ने भी राहत की साँस ली थी। अब मसला सिर्फ़ कवर डिज़ाइन को रमा जी से पास कराने का था और यहीं आ कर हाथी की पूँछ अटक गयी थी।

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