Wednesday, September 3, 2014

हिचकी



क़िस्त - 2


दो


कुसुम विहार से लक्ष्मी नगर तक की छलाँग लगाने के इस क्रम में नन्दू जी के पिछले संगी-साथी और पड़ोसी ही नहीं बदले थे, उनके मकान मालिक भी बदल गये थे। 

कुसुम विहार के पुराने फ़्लैट का मालिक हरीराम कड़कड़डूमा की पुरानी बस्ती के अपने पुश्तैनी मकान में, अपने पाँच बच्चों और एक अदद बीवी के साथ मच्छरों, मलबे, गन्दी नालियों और गालियों वाले विकट और विशुद्ध भारतीय परिवेश में रहता था। शास्त्री भवन में किसी सरकारी दफ़्तर में चपरासी था और चूँकि उसके पास अपना ख़ुद का मकान था, इसलिए जब सरकारी कोटे के तहत कुसुम विहार वाले फ़्लैट की लॉटरी उसके नाम खुली थी तो न तो उसे  फ़्लैट लेने की ऐसी कोई ज़रूरत थी, न इच्छा। लेकिन जब उसका नम्बर आ गया तो उसके साथियों ने उसे फ़्लैट ले लेने की सलाह दी थी।
     ‘तीन लड़कियाँ हैं तेरी, हरीराम, वे तो अपने धोरे लगेंगी,’ ड्राइवर सुखराम ने बीड़ी का सुट्टा लगाते हुए कहा था, ‘पर अपने दो लौंडों का क्या करेगा तू ? इस चालीस गज़ की घुरनी में ना रहने वाले वो।’
     ‘किराये पर चढ़ा दीजो फ़्लैट को,’ हरीराम के साले ने कहा था, जो उद्योग भवन में गेट पर तैनात था, ‘किस्त अदा होती रहेगी और चार पैसे बच भी जाया करेंगे ऊपर से। पता भी नहीं चलेगा और फ़्लैट तेरा अपना हो जायेगा।’
     दोबारा सोचने पर हरीराम को इस तजवीज़ से फ़ायदे की कई सूरतें निकलती नज़र आयी थीं। और जब आबण्टन की सूचना आते ही एक प्रॉपर्टी डीलर ने उसे पच्चीस हज़ार रुपये ज़्यादा दे कर फ़्लैट ख़रीदने की पेशकश की थी तो उसने मन पक्का कर लिया था। लिहाज़ा उसने अपने साले से कुछ पैसे उधार ले कर पहली किस्त भर दी थी और चाभी मिलते ही फ़्लैट को किराये पर चढ़ा दिया था। 
     पिछले आठ वर्षों में नन्दू जी उसके तीसरे किरायेदार थे। हर महीने हरीराम ठर्रे का पौवा चढ़ा कर किराया लेने आता, किराया ले कर पास के ठेके से एक पौवा और ख़रीदता, और फिर अगली अमावस या पूर्णिमा तक ग़ायब हो जाता।
कुसुम विहार के फ़्लैट को छोड़ते समय नन्दू जी को एक साथ हैरत, दुख और राहत की परस्पर विरोधी भावनाओं का एहसास हुआ था। 
हैरत इसलिए कि वे कैसे दिल्ली जैसी राजधानी में रहते हुए भी ऐसे पिछड़े लोगों के बीच दिन गुज़ारते रहे जिन्होंने कभी गेब्रिएल गार्सिया मार्केज़, अरुन्धती राय, विक्रम सेठ, कृष्ण बलदेव वैद, तेजी ग्रोवर और सुधीर कक्कड़ का नाम तक नहीं सुना था। दुख इसलिए कि राजधानी के कला-जगत और साहित्यिक-सांस्कृतिक स्वर्ग के द्वार तक पहुँच जाने के बावजूद वे अन्दर से अब भी वही परिवर्तन-भीरु गामड़े थे, जिसके लिए फ़्लैट बदलना देश बदलने से कम अहमियत नहीं रखता था। 
यूँ भी, कुसुम विहार के ज़्यादातर निवासी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी नहीं, बल्कि नन्दू जी जैसे ही मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा थे, जो दूर-पार के इलाक़ों से आ कर दिल्ली में जमने-जमाने की कोशिश कर रहे थे। उनके बीच नन्दू जी को कुछ वैसी ही आश्वस्ति होती, जैसी जैविक तत्वों को अपने अनुकूल परिवेश और पर्यावरण में होती है, ख़्वाह वह अन्य जैविक तत्वों के लिए कितना ही प्रतिकूल और घातक क्यों न हो। अलावा इसके, नन्दू जी ने अख़बार की नौकरी का एक साल पूरा होते-न होते विवाह कर लिया था और अपनी शादी-शुदा ज़िन्दगी के शुरुआती दौर में, जब वे तिनका-तिनका जोड़ कर अपने नीड़ का निर्माण कर रहे थे, कुसुम विहार उन्हें हर तरह से मुफ़ीद जान पड़ा था। 
उनकी पत्नी बिन्दु भी विवाहित जीवन की ख़ुमारी से बाहर आ कर दिल्ली की आपा-धापी से भरी एकरस रफ़्तार की ऊब से रू-ब-रू नहीं हुई थी और जल्द ही अपने जैसी अन्य पड़ोसिनों से उसका बहनापा हो गया था। रहा सवाल राहत का, तो यह एहसास अचानक उस दिन हुआ था, जब नन्दू जी एक महीने के दौरान तेरह फ़्लैट देखने के बाद आख़िरकार लक्ष्मी नगर वाले फ़्लैट के मकान मालिक के इण्टव्र्यू में पास हो गये थे।
लक्ष्मीनगर के इस नये फ़्लैट के मालिक सूरजप्रकाश बंसल चाँदनी चौक के भगीरथ प्लेस में (जिसे वे और अन्य सभी लोग भगीरथ पैलेस कहते) बिजली के सामान के मझोले व्यापारी थे। किराया लेने की तत्परता और नियमितता के अलावा उनमें और हरीराम में कोई समानता नहीं थी। बंसल साहब शराब तो दूर, लहसुन और प्याज़ तक न छूते थे। हालाँकि व्यापार की भाग-दौड़ के कारण अब उनका शाखा जाना छूट चुका था, मगर वोट वे बाकायदगी से भा.ज.पा. ही को देते और मंगल-शनि को निष्ठापूर्वक हनुमान मन्दिर जा कर प्रसाद चढ़ाते थे।
     पहले-पहल नन्दू जी को बंसल साहब की इस धार्मिक निष्ठा से बड़ी कोफ़्त हुई थी। ख़ास तौर पर जब घड़ी के अलार्म की-सी नियमबद्धता से सुबह के पाँच बजे ही से ‘ओम जै जगदीश हरे,’ ‘गायत्री मन्त्र,’ ‘दुर्गा सप्तशती’ या फिर हरि ओम शरण या नरेन्द्र चंचल के किसी कैसेट की ऊँची, बेसुरी और नींद-भगाऊ आवाज़ पूरी बिल्डिंग में गूँजने लगती।
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दरअसल, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के असली महत्व को सबसे पहले कैसेट बनाने वाली कम्पनियों ने पहचाना था। उन्होंने शास्त्रीय संगीत के प्रेमियों को, जो किसी बड़े आयोजन में मँहगे टिकट ख़रीद कर, भीमसेन जोशी, रविशंकर या किशोरी अमोनकर को सुनने की औक़ात न रखते थे, घर-बैठे संगीत-लाभ करने की सुविधा हासिल करा दी थी। लेकिन यह तो श्रोताओं का एक सीमित वर्ग था। कैसेट कम्पनियों की असली कमाई फ़िल्मी गीतों और उससे भी ज़्यादा धार्मिक कैसेटों की बिक्री से होती, जिन्हें अपने टू-इन-वन पर लगा कर आम मध्यवर्गीय परिवार बड़े आराम से अपना इहलोक और परलोक सुधार सकते थे। 
बंसल जी के घर की पृष्ठभूमि में भी समय के हिसाब से ‘गायत्री मन्त्र’ या फिर ‘जुम्मा चुम्मा दे दे’ के स्वर गूँजते रहते और सामने दिन-चर्या के विभिन्न कार्य-व्यापार सम्पन्न होते रहते, जिनमें नहा-धो कर आले में रखी देवी-देवताओं की मूर्तियों के आगे अगरबत्ती जलाने से ले कर कपड़े धोने, दाल छौंकने और दोपहर के अवकाश में बड़ी तोड़ने की विविध-रूपी गतिविधियाँ शामिल थीं । 
     नीचे के वर्मा जी स्टेट बैंक में चीफ़ अकाउण्टेण्ट होने के बावजूद उसी धर्म-परायण फ़िल्म-प्रेमी मध्यवर्गीय बिरादरी के सदस्य थे, जिनमें बसंल जी और उनके परिवार का शुमार होता था, इसलिए उन्हें इस सारी चिल्ल-पों से कोई ख़ास एतराज़ नहीं था। मुश्किल नन्दू जी की थी, जो कभी-कभी आई.आई.सी., इण्डिया हैबिटैट सेंटर या त्रिवेणी सभागार के किसी लोकार्पण समारोह से थके-थकाये लौटते और अगले दिन कुछ देर तक सो कर पिछले दिन की थकान या रम की ख़ुमारी दूर करना चाहते, जिसके वे, मन को समझा कर ‘रसरंजन’ की दहलीज़ लाँघने के बावजूद, अभी तक अभ्यस्त नहीं हो पाये थे। कभी-कभी उनके जी में आता कि वे ध्वनि-प्रदूषण के बारे में बंसल साहब का ज्ञान-वर्धन करें। मगर फिर उन्होंने सामाजिक सीढि़याँ चढ़ने के अनुष्ठान में इस शोर-शराबे को एक अनिवार्य बुराई मान कर चुप लगा जाना ही श्रेयस्कर समझा था। 
     उन्होंने इस बात को भी नज़रन्दाज़ कर दिया था कि बंसल साहब ने फ़्लैट देते समय किसी सी.बी.आई. अधिकारी की तरह उनकी जाँच-पड़ताल की थी और आमदनी से ले कर घर-परिवार की पूरी जानकारी लेने के बाद इस बात पर सन्तोष व्यक्त किया था कि वे शादी-शुदा होने के साथ-साथ जसरा के शाण्डिल्य गोत्रीय तिवारी हैं।
     ‘भले मानसों का महल्ला है जी,’ उन्होंने कहा था, ‘यहाँ माँस-मदिरा का क्या काम होवे ? हम तो लस्सन-प्याज़ तक ना छूत्ते। फिर आप तो बामण ठैरे। आपको तो यूँ भी इन तामसी वस्तुओं से क्या लेना-देना जी।’
यह बात दीगर है कि बंसल साहब ने किराये में पचास रुपये कम करना भी स्वीकार न किया था और ऊपर से तमाम तरह की पाबन्दियाँ लगा दी थीं। पाबन्दियों का दायरा खान-पान और धरम-करम तक ही सीमित न था, बल्कि उसमें बिजली-पानी और आने-जाने वालों को भी समेट लिया गया था। बिजली का तो ख़ैर, सब-मीटर लगा था, लेकिन तीसरी मंज़िल के उस बरसाती-नुमा फ़्लैट में पानी तभी चढ़ता, जब बंसल साहब नीचे मोटर चालू करते। 
     शुरू-शुरू के दिनों में, जब एक बार नन्दू जी को उठने में देर हो गयी थी और बंसल साहब घड़ी देख कर आध घण्टा मोटर चालू करके बन्द कर चुके थे, तब दोबारा मोटर चालू करने के अनुरोध को स्वीकार करते हुए उन्होंने दो-टूक लहजे में यह स्पष्ट कर दिया  कि ऐसा वे अपवाद-स्वरूप ही कर रहे हैं। नन्दू जी को उसी शाम सारा काम छोड़ कर प्लास्टिक का एक बड़ा ड्रम लाना पड़ा था, जिसने पहले से घिरे हुए उनके छोटे-से ग़ुसलखाने की सारी व्यवस्था दरहम-बरहम कर दी थी। 
     इसी तरह एक इतवार को जब नन्दू जी के पुराने अख़बार वाले दिनों का एक साथी, फ़रहान अख़्तर, जो राष्ट्रीय सहारा के उर्दू संस्करण में उप-सम्पादक था और अपने गोरे, क्लीन-शेव्ड, सुते हुए चेहरे के कारण कश्मीरियों जैसा लगता था, उनके नये फ़्लैट को देखने आया था तो बंसल साहब ने उसे तीसरी मंज़िल की तरफ़ निर्देशित करते हुए ऐसी सन्देह-भरी नज़रों से देखा था, मानो वह एक प्रतिष्ठित दैनिक का पत्रकार न हो कर आई.एस.आई. का एजेण्ट हो। 
     कई बार नन्दू जी को लगता कि वे कुसुम विहार के खुले, आज़ाद मैदान से अदृश्य सलाख़ों वाले किसी कटघरे में आ फंसे हैं। पर धीरे-धीरे उन्होंने यह सोच कर इस कटघरे से समझौता कर लिया था कि उन्हें ज़िन्दगी भर थोड़े ही यहाँ रहना है, यह तो दक्षिण दिल्ली की उन्मुक्त फ़िज़ा की राह में एक पड़ाव भर है।
चूँकि मकान मालिक के पास एक सेकेण्ड हैण्ड मारुति कार थी, जिसे वह मकान के बाहर गली में खड़ा करता था, इसलिए फाटक के अन्दर सीढि़यों के पास की खुली जगह में मकान मालिक के बेटे की मोपेड और वर्मा जी की हीरो हॉण्डा के साथ अपना स्कूटर भी खड़ा करने की सुविधा नन्दू जी को मिली हुई थी। गो, ऐसा करने में उन्हें रोज़ जो पापड़ बेलने पड़ते, वे उन्हें स्कूटर ही से विरत करने को काफ़ी थे। लेकिन इस तकलीफ़ को भी उन्होंने उन्नति की कठिन राह की सामान्य मुश्किलों के खाते में डाल रखा था। 
     लिहाज़ा, महीने के इस आख़िरी शनिवार को भी उन्हांने सर्कस के नट की-सी कुशलता से अपना बजाज स्कूटर, मोपेड और हीरो हॉण्डा को छूने से बचाते हुए, सीढि़यों के पास खड़ा करके उसके हैण्डल को लॉक किया था। और फिर, हालाँकि बंसल साहब रात के दस बजे ही फाटक में ताला जड़ देते थे, जिससे स्कूटर चोरी होने का कोई ख़तरा न था, नन्दू जी ने अपनी स्वभावगत सावधानी से काम लेते हुए स्कूटर के स्टैण्ड में ख़ास तौर से लगवाये गये ताले में भी चाभी लगायी थी, हेल्मेट को एहतियात से बग़ल में दबाया था और हर तरह से इतमीनान करके ऊपर पहुँचे थे।

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