Tuesday, September 16, 2014


हिचकी

किस्त : 22-23

बाईस

सबको नमस्कार करके चन्दू जी सीढि़याँ उतर गये तो नन्दू जी को अचानक हाजत-सी महसूस हुई। वे कुछ मिनट में आने को कह कर पीछे के कमरे से होते हुए बाथरूम में चले गये। कुछ देर बाथरूम में गुज़ारने के बाद उन्हें लगा कि हाजत तो महज़ झूठा संकेत था, असल में तो उन्हें पेशाब करना था। सुबह से ही लगातार पानी पीने के कारण उनके मसाने पर दबाव बढ़ गया था।
जब वे निपट-निपटा कर बाहर आये तो एक ऐसी बात उनके कान में पड़ी कि उनका तन-मन एकबारगी झनझना उठा। जैसा कि किसी भी महफ़िल में आम तौर पर होता है, आदमी के बाहर जाते ही चर्चा उसी पर केन्द्रित हो जाती है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ था।
‘केतना तन्खाह पाते होंगे साथी नन्दू जी,’ वज्रपात ने कमरे में चारों तरफ़ नज़र दौड़ाते हुए कहा था।
‘ठीकै-ठाक पाते होंगे। तब्बै तो ई सब सामान जुटाये हैं। पार्टी के अखबार लोकमत में तो कम्यून चलता रहा न, सो खाना-खर्चा ही पाते थे।’ राम अँजोर बोले।
‘अरे भई, बीच में कुछ साल अमर ज्योति में भी काम किया है नन्दू जी ने,’ आदित्य प्रकाश भाँप गये थे कि बातों की दिशा कौन-सा रुख़ ले रही थी, सो वे इस टीका-टिप्पणी को सीमा से बाहर जाने से रोकने के लिए हस्तक्षेप-सा करते हुए बोले, ‘सामान तो जुट ही जाता है। फिर कुछ चीज़ों की ज़रूरत भी तो होती है।’
‘जरूरत हो तब न,’ वज्रपात को पिछली शाम की भेंट से ही जो मलाल था, वह बाहर आ रहा था। ‘अब एही सब देखिए, ए सब टीम-टाम का कऊन ज़रूरत है। जहाँ लोग दू मुट्ठी अन्न नहीं पाते हों, हुआँ ई सब सजावट हमको तो अस्लील जनाता है कॉमरेड।’ उन्होंने जैसे अन्तिम फ़ैसला सुनाते हुए कहा।
‘हम ए बात मान लिये जे सादी के बाद पार्टी के अखबार में जियादा गुंजाइस नहीं रहा। अच्छा-भला अमर ज्योति में काम करते रहे नन्दू जी, पार्टी का भी कुछ भला होता था। दस ठो काम सपरता था। ई परकासन में का धरा है। एसे जनवाद और क्रान्ति का कऊन भला होने वाला है?’ फ़ैज़ाबाद के संस्कृतिकर्मी उदय प्रकाशपुंज ने टीप जड़ी।
‘आप ई भी देखिए न साथी,’ राम अँजोर जो बहुत देर से चुप थे अचानक बोले, ‘जे ई समस्या व्यक्ति का नहीं है। नन्दू जी का परिवर्तन वास्तव में प्रवृत्ति का संकेत देता है। इसका सम्बन्ध पार्टी से भी है।’
‘पार्टी से?’ वज्रपात चिंहुके। ‘साथी, आप लोग हर मामला थियोराइज जो करने लगते हो, ई ठीक नहीं है।’
‘कइसे साथी,’ राम अँजोर ने कहा, ‘कोनो आदमी पैदाइस से क्रान्तिकारी नहीं होता है। पार्टी में आने अऊर बिचारधारा अपनाने पर धीरे-धीरे वर्ग चेतना से लैस होता है। अब एही देखिए, आजकल पाटी में विलोपवाद, विसर्जनवाद और डेविएसन पर केतना बहस चल रहा है। जब तक क्रान्ति के गर्भ से नया इन्सान नहीं आयेगा जइसा कॉमरेड महासचिव बोले हैं, तब तक डेविएसन तो होगा और उसको ठीक भी करना होगा। नन्दू जी का धीरे-धीरे पार्टी से कटना भी एही का संकेत है।’
‘हमको तो ई जनाता है, साथी,’ प्रकाशपुंज ने कहा, ‘कि पुराना लोग सही-सही कहता था। ई सब छान-फटक नहीं करता था। हमरा गाँव का बात होता तो बूढ़-पुरनिया बोलता -- अरे, भूखा ब्राह्मण है, भोजन पाने पर तृप्ति तो होगा ही। सो इहाँ भी ओही मसल है।’
‘दरअसल महत्वाकांक्षी हैं,’ आदित्य प्रकाश ने प्रकाशपुंज की बात के डंक को कुछ कम करते हुए कहा। 
‘हाँ, महत्वाकांछा तो होगा ही, तभी जल्दी धनवान होना चाहते हैं।’ साथी रामअँजोर बोले, ‘पोलित ब्यूरो का भी एही कहना है।’ फिर उन्होंने हँसते हुए बात ख़त्म की, ‘वर्गीय चेतना की बात है न, मार्क्स भी कहे हैं, मध्यवर्ग में लालसा सहज रूप से होता है।’
यही वह आख़िरी टिप्प्णी थी जो नन्दू जी के कान में पड़ी थी और बाहर को आते हुए वे ठिठक गये थे। 
‘महत्वाकांक्षी हैं, जल्दी धनवान होना चाहते हैं, पोलित ब्यूरो का भी यही कहना है।’ शब्द जैसे कीलों की तरह उन्हें चुभे जा रहे थे। 
उन्हें अपने साथियों की संकीर्णता पर खीझ हुई जो यह भी नहीं समझते थे कि सुरुचि भी कोई चीज़ होती है। हर वक़्त वही मामूली-से कपड़े पहने, सुर्ती ठोंकते या बीड़ी फूंकते हुए, कम्यून में जीना और संस्कृति कर्म के नाम पर नुक्कड़ नाटक खेलना या क्रान्तिकारी गीत गाना ही काफ़ी नहीं होता। आख़िर उच्चतर सौन्दर्य बोध, ‘हायर एस्थेटिक्स’ भी तो कोई चीज़ होती है। साथी लोग यह कभी नहीं समझेंगे, इसीलिए तो पार्टी दलदल में फँसी हुई है। उन्हें फिर ज़ोर की हिचकी आयी। उन्होंने सिर झटका और बैठक में दाख़िल हुए।
इस बीच बिन्दु चाय बना लायी थी और सब लोग चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे।
‘तुम चाय लोगे ?’ बिन्दु ने नन्दू जी से पूछा।
‘थोड़ी-सी चाय लेना ठीक होगा,’ आदित्य प्रकाश ने कहा, ‘हिचकी में आराम मिलेगा।
बिन्दु ने केतली से एक कप में थोड़ी-सी चाय ढाल कर नन्दू जी की तरफ़ बढ़ायी। नन्दू जी ने बेमन से दो-एक घूंट भरे। उन्हें अचानक बेहद थकान और ऊब महसूस होने लगी थी। साथी लोग अब भी पार्टी की गतिविधियों को ले कर जुटे हुए थे मानो यह नन्दू जी का घर नहीं, पार्टी का दफ़्तर हो।
‘साथी, जेतना समय तक पार्टी में डेमोकैटिक सेंट्रलिज्म है, ओतना समय तक आप पार्टी पर डेविएसन का आरोप नहीं न लगा सकते,’ साथी राम अँजोर दृढ़ता से कह रहे थे, ‘दो लाइन का संघर्ष पार्टी का बुनियादी नीति है।’
‘बुनियादी नीति था, हम भी ई मानते हैं,’ वज्रपात ने प्रतिवाद किया, ‘लेकिन इधर जब से पार्टी चुनाव में हिस्सा लेने का फ़ैसला किये है, तब से ई दू लाइन का संघर्ष कुछ कम हो गया जनाता है।’
‘अऊर डेमोक्रैटिक सेंट्रलिज्म भी,’ प्रकाशपुंज ने टीप जड़ी, ‘कम हो गया है। अब एही देखिए कि जब पार्टी का सांस्कृतिक घटक लोक संस्कृति मंच बना था तो पार्टी का नेता लोग बोले थे जे ई स्वायत्त रहेगा। जब ऊ धड़ल्ले से काम करने लगा तो पार्टी को लगा अब लगाम कसना चाहिए। सो, कॉमरेड अवध बिहारी सुक्ला को कार्यकारिणी में को-ऑप्ट कराये दिया। साथी अवध बिहारी पार्टी के पुराने नेता सही, लेकिन ऊ कभी सांस्कृतिक मोर्चे पर ऐक्टिव नहीं रहे। ई फैसला इकतरफा नहीं रहा?’
अभी यह बहस जाने कितनी देर चलती और नन्दू जी को कितना ऊबाती-तपाती (क्योंकि पार्टी लाइन और प्रवृत्तियों की यह सारी बहसा-बहसी उन्हें अपने बारे में कहे गये दो वाक्यों के सन्दर्भ में की गयी लग रही थी) कि तभी सीढि़यों से टेरेस में खुलने वाले दरवाज़े के ऊपर लगी घण्टी बजी। बिन्दु उठ कर टेरेस की मुंडेर तक गयी और टेरेस से नीचे झाँक कर देखने के बाद उसने लौट कर बताया, ‘चण्डिका प्रसाद द्विवेदी हैं, दो-तीन लोगों के साथ, और ऊपर आ रहे हैं।’
‘ई दलाल हियाँ का करने आया है ?’ अनिल वज्रपात ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा।
इस बीच बिन्दु ने सीढि़यों से फ़्लैट में आने वाला दरवाज़ा खोल दिया था और कुछ पल बाद दो युवकों को (जो शक्ल-सूरत और हाव-भाव से चमचे लगते थे) अपनी अर्दल में लिये, एक सम्भ्रान्त-से व्यक्ति के साथ चण्डिका प्रसाद द्विवेदी कमरे में दाख़िल हुए।

तेईस

साँवला रंग, मझोला क़द और गठा बदन; चुंधी-चुंधी आँखों पर मोटे शीशों वाला चश्मा जिसे उतारने पर उनकी आँखें और भी चुंधी-चुंधी जान पड़ती थीं; चेहरे के नक़्श ब्रश के मोटे स्पर्शों और मोटी रेखाओं से बनाये गये -- चण्डिका प्रसाद द्विवेदी जब चश्मा हटा कर बात करते तो सिर को थोड़ा ऊपर को उठाये रहते, जिस तरह से अमूमन नेत्रहीन उठाये रखते हैं और मुस्कराते तो उनके चेहरे पर एक निरीहता-सी झलकने लगती। लेकिन उनके खाँटी घाघपन पर अनायास छा जाने वाली यह निरीहता महज़ एक छलावा थी जिसके पीछे छिपी सूक्ष्म बुद्धि और शातिर काँइयापन उनके सरापे या सूरत-शक्ल से नहीं, बल्कि कामकाज, व्यवहार और आचरण से उजागर होता था।
राजनैतिक हलक़ों में चण्डिका प्रसाद द्विवेदी, जिन्हें हर ख़ास-ओ-आम अब उनके पुकारू नाम सीपीडी से जानता था, ‘फ़ितरती’ प्रसिद्ध थे - उन लोगों में से एक, जिनकी हमारे इस संसदीय लोकतन्त्र में सुदीर्घ परम्परा थी। 
साँठ-गाँठ, जोड़-तोड़ और जुगाड़ में माहिर सीपीडी ने शुरुआत तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा से की थी जब वे हाई स्कूल में थे और ‘वियोगी’ के उपनाम से गीत लिखा करते थे, लेकिन जल्दी ही वे मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन एस.एफ़.आई. में आ गये, छात्र-संघ के अध्यक्ष बने, उपनाम बदल कर ‘अग्निशिखा’ रखा और अर्से तक वहीं बने रहे। जब तक कि उन्हें अपनी एक अलग क़िस्म की सौन्दर्य वृत्ति के कारण, जो लोगों के ख़याल में उनके संघी सान्निध्य और साहचर्य की देन थी, पार्टी से अलग नहीं होना पड़ा। 
यों, ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो कहते थे कि दरअसल सीपीडी  संघ-विरोधियों का निशाना बन गये थे या फिर कुछ दूसरों का दावा था कि संघ को सीपीडी की नैसर्गिक सौन्दर्य-वृत्ति के कारण कलंकित होना पड़ा था। बहरहाल, ज़हीन आदमी थे, दुनिया भर का साहित्य-दर्शन घोखे हुए, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से ले कर संस्कृति, आदि पर साधिकार बोल सकते थे और अपनी महत्वाकांक्षाओं पर घूंघट काढ़ कर बड़े नेताओं का साथ निभा सकते थे, उनके भाषण लिख सकते थे और साँठ-गाँठ में ऐसे बिचौलिये की भूमिका निभा सकते थे जो अदृश्य और मूक रहने का गुर जानता हो और जिसके कान में डाली गयी बात न तो दूसरे कान के रास्ते हवा हो जाय, न मुँह के रास्ते आग भड़का दे ।
जल्दी ही सीपीडी एक ऐसे प्रभावशाली नेता के साथ ‘लग लिये’ थे, जिसने अनेक पार्टियों की जननी हमारी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पुरानी रवायत बरक़रार रखते हुए अपनी स्वतन्त्र पार्टी बना ली थी। चूंकि उस पुरानी रवायत के मुताबिक़ ऐसा काम वही करते आये थे जो फ़क़ीर हों या फ़नकार, चुनांचे इस नेता ने मोक्ष का दूसरा मार्ग पकड़ा था। पैसा उन्होंने कांग्रेस के मन्त्रिमण्डलों में प्रभावशाली और रसीले पदों पर रह कर अकूत गँठियाया था और अब भी केन्द्र की अस्थिर सरकार को समर्थन देने-न देने या वापस लेने-न लेने के एवज़ में गँठिया रहे थे। नतीजतन इस गुड़ के बल पर राजनैतिक चींटों को अपनी तरफ़ खींचे रखने की क़ूवत रखते थे। 
चण्डिका उर्फ़ सीपीडी ऐसे ही चींटे थे और चूंकि अत्यन्त विपन्न परिवार से आये थे, इसलिए गुड़ की अहमियत से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। अब तो ख़ैर अपने शुभाकांक्षी-संरक्षक की कृपादृष्टि की बदौलत सीपीडी के पास दो-दो गाडि़याँ और दिल्ली, बम्बई और बनारस में मकान, यहाँ तक कि बनारस के पास अपने गाँव में, ज़मीन भी थी मगर एक ज़माना ऐसा भी था जब वे पढ़ने के लिए बनारस आने से पहले चाय-पकौड़ी और जलेबी की एक दुकान के अन्दर परछत्ती पर गुज़ारते थे।
दुकान चण्डिका के पिता की थी जो सन तीस में कांग्रेस की लहर पर सवार हो कर अपने गाँव जोखूपुरवा, ज़िला चन्दौली से कलकत्ता चले आये थे और ज्वार के उतर जाने पर किनारे फेंक दिये गये तिनकों की तरह कलकत्ता ही में रह गये थे। चूंकि ताल-तिकड़म वाले आदमी नहीं थे, इसलिए पार्टी के नेताओं ने वहीं बड़ा बाजार में उन्हें एक छोटी-सी चाय-पकौड़ी की दुकान खुलवा दी थी और उसी के ऊपर रिहाइश का इन्तज़ाम करा दिया था।
यहीं चण्डिका प्रसाद द्विवेदी के आरम्भिक वर्ष गुज़रे थे, जब तक कि वे इण्टर के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बनारस नहीं आये। उनके अन्दर के जौहर को बनारस ने सान पर चढ़ाया था जो ठेठ बनारसी मुहावरे में कहें तो ‘राँड़-साँड़-सीढ़ी-संन्यासी’ ही के लिए नहीं, बल्कि अपने एक और समुदाय की वजह से जाना जाता था, जिसके गुणों की आज़माइश के लिए राजनीति सबसे उपयुक्त अखाड़ा था।
बनारस के बाद सीपीडी ने मुड़ कर नहीं देखा था। रोज़ पहने जाने वाले कपड़ों की तरह साथी-संगाती, दल और नेता बदलते हुए आज वे अपने ताज़ातरीन आक़ा की पार्टी के महासचिवों में से एक थे। चूंकि शुरू ही से चण्डिका ने बादशाहों के हश्र को पहचान लिया था, इसलिए बादशाह बनने की बजाय, उन्होंने बादशाह बनाने की तरकीबें सिद्ध की थीं। इससे दो फ़ायदे थे; एक तो विश्वास का संकट नहीं पैदा होता था, दूसरे उनकी अपनी गाड़ी प्रेम से अप्रयास खिंचती रहती थी।
आजकल चूंकि वह दल जिसके चण्डिका महासचिव थे किसी भी प्रान्त में सत्ता में नहीं था, इसलिए चण्डिका निस्बतन ख़ाली थे। गो, उनका अपना धन्धा बदस्तूर जारी था। अपने पिछले सफ़र में चण्डिका ने हर दल में एक न दो ऐसे सम्पर्क बनाये हुए थे कि वे अपने पास आने वाले लोगों के ‘काम आ सकें।’ काम आ सकने की यही ख़ासियत अब तक चण्डिका की सफलता का एक रहस्य थी। उनके साथ इस समय भी जो दो युवक थे, वे अपने काम के सिलसिले में चण्डिका के साथ थे और चण्डिका उन्हीं की क्वालिस गाड़ी में नन्दू जी से मिलने आये थे।
कमरे में दाख़िल होते ही चण्डिका की नज़र वहाँ बैठे लोगों पर पड़ी थी और इस बात पर भी कि सारे मूढ़ों पर लोग बैठे थे और दीवान पर लगभग भीष्म पितामह की मुद्रा में नन्दू जी लेटे हुए थे। उन्होंने मुड़ कर अपने साथ आये युवकों से कहा था, ‘तुम लोग थोड़ी देर बाहर का नज़ारा लो, हम दू मिनिट नन्द किशोर जी से बतिया लें, फिर चल कर तुम्हारा काम कराते हैं।’
इसके बाद हालाँकि अन्दर मौजूद लोगों ने चण्डिका और उनके साथ आये व्यक्ति के लिए जगह ख़ाली करने की पेशकश की थी, लेकिन बड़ी तत्परता से सबसे अपनी जगह बैठे रहने का आग्रह करके चण्डिका नीचे चटाई पर उसी जगह जा बैठे थे जो थोड़ी देर पहले नन्दू जी के भाई के जाने पर ख़ाली हुई  थी। वे जानते थे कि महत्व व्यक्ति का होता है, आसन का नहीं और राजा धरती पर बैठे तो भी राजा ही रहता है। इसके साथ ही उन्होंने अपने साथ आये व्यक्ति से कहा, ‘आइए डॉक्टर साहब,’ और उन्हें भी अपने साथ ही बिठा लिया।
ज़ाहिर है कि कमरे में चल रही बहस में चण्डिका के आने से जो ख़लल पैदा हुआ था, उसकी वजह से एक अजीब-सी-चुप्पी छा गयी थी जिसके नीचे-नीचे तर्कों, दलीलों और अनकही रह गयी बातों की एक अदृश्य-सी हलचल मची हुई थी, जैसा कि अमूमन ऐसे वक़्तों में होता है। मगर इससे पहले कि यह चुप्पी असहजता अख़्तियार करे, चण्डिका ने मोर्चा सँभाल लिया था और ‘नमस्कार-नमस्ते’ और ‘आइए-आइए’ का कीर्तन समाप्त होने के बाद चटाई पर अपनी परिचित योग-मुद्रा वज्रासन में बैठ कर चण्डिका ने जो पहला वाक्य बोला, उससे सब लोगों को अन्दाज़ा हो गया कि चण्डिका को नन्दू जी की हालत का रत्ती भर पता नहीं है और वे और भले ही किसी काम से आये हों मिज़ाजपुर्सी के लिए नहीं आये।
‘कहिए साथी राम अँजोर जी,’ चण्डिका ने किसान सभाई कॉमरेड से पूछा जिनसे वे पूर्व परिचित थे, ‘नालन्दा में काम कैसा चल रहा है?’
‘ठीकै है,’ राम अँजोर बोले, ‘पिछली बार चुनाव में सीट पाटिये जीता था।’
‘रैली तो आपकी ज़ोरदार हुई, बहुत अच्छी कवरेज की है अख़बारों में, लगता है आप लोगों ने दिल्ली चलो का बिगुल फूंक ही दिया है आख़िर,’ चण्डिका ने चश्मा उतार कर एक हाथ से आँखों को मलते हुए कहा।
‘दिल्ली आये बिना किस का गुजारा हुआ है साथी,’ वज्रपात ने हल्के-से व्यंग्य और तल्ख़ी से कहा, ‘सत्ता तो दिल्लियै बिराजती है न।’
अब चण्डिका ने ग़ौर से उस युवक पर नज़र डाली। वे पल भर में पहचान गये कि अभी ज़िन्दगी ने इस युवक को लड़ाई के अवसर चुनना नहीं सिखाया है।
‘भाई, हम तो अब तक यही जानते थे कि सत्ता सर्वहारा के अधिनायकवाद में बिराजती है। दिल्ली तो एक पड़ाव है। आपकी पार्टी ने भी तो चुनाव में हिस्सा लेने का फ़ैसला करके यही मान लिया है न?’ वे बिना उत्तेजित हुए बोले।
अब कॉमरेड राम अँजोर को अचानक अपने साथियों का परिचय देने का ख़याल आया। उन्होंने अनिल वज्रपात, उदय प्रकाशपुंज और आदित्य प्रकाश का परिचय दिया। आदित्य का नाम सुनते ही चण्डिका चहक उठे, ‘अरे आप ही आदित्य प्रकाश हैं। अहो भाग्य। मैं तो आपकी कहानियों का मुरीद हूं। भाषा-शैली का भी और जिस तरह से आप विषय उठाते हैं, उसका भी।’
‘लेकिन कॉमरेड,’ अबकी बार बारी उदय प्रकाशपुंज की थी, ‘आपकी इस राजनैतिक व्यस्तता में कहानी पढ़ने का टाइमौ मिलता है ?’
‘आपने हमारी दुखती नस छेड़ दी साथी,’ स्वर में अवसाद ला कर चण्डिका ने कहा, ‘समय तो कम मिलता है, यह ठीक है, पर हमने साहित्य-संस्कृति और विचार से अपने को कभी अलग नहीं किया है। लोकवादी कांग्रेस में भी हमने साफ़ कर दिया है कि यह सब हमारे लिए साँस लेने के बराबर है। अरे, हमको तो आज भी वे दिन याद आते हैं जब हम बनारस में गोरख पाण्डे, महेश्वर और दूसरे साथियों के संग मिल कर काम करते थे, गीत गाते थे...’
और बात अधूरी छोड़ कर चण्डिका ने अचानक दिवंगत कवि गोरख पाण्डे के गीत की कुछ पंक्तियाँ सस्वर सुनानी शुरू कर दीं।

‘सूतल रहलीं सपन एक देखलीं 
सपन मनभावन हो सखिया
फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा
उजर घर आँगन हो सखिया
अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा 
त खेत भइलें आपन हो सखिया
गोसयाँ के लठिया मुरइया अस तूरलीं 
भगवलीं महाजन हो सखिया....’

शक्ल-सूरत और सरापा चाहे जैसा हो, पर कण्ठ चण्डिका का लाजवाब था। तरह-तरह की अतियाँ भी (वे सुबह से शाम तक पी सकते थे और रात-रात भर जाग कर ख़रमस्तियाँ कर सकते थे) उसकी मधुरता को कम नहीं कर पायी थीं। गीत था भी उस साध के बारे में जो हर आम हिन्दुस्तानी किसान के मन में दुल्हिन की तरह सफल होने की चाह में बैठी रहती है। 
कमरे में बैठे लोग मन्त्र-मुग्ध-से सीपीडी को गाते सुनते रहे। यहाँ तक कि बिन्दु भी रसोई से वहाँ आ गयी।
गीत की दो कडि़याँ गा कर चण्डिका मुस्कराये और फिर घड़ी की तरफ़ नज़र डाल कर नन्दू जी की तरफ़ मुड़े जो चण्डिका के आने के बाद दीवान पर दीवार से पीठ टिका कर अधबैठे हो गये थे।
‘दरअसल, हम एक ख़ास काम से आये हैं, नन्दू जी,’ उन्होंने बात शुरू की, मगर इस बीच नन्दू जी की हिचकियों का क्रम थोड़ा तेज़ हो गया था, इसलिए उन्होंने पहले नन्दू जी की कुशल पूछना ज़रूरी समझा, ‘क्या बात है, हम आये तो आप लेटे हुए थे, तबियत तो ठीक है न?’
‘कहाँ ठीक है,’ बिन्दु ने चिन्ता-भरे स्वर में कहा, ‘कल शाम से हिचकी शुरू हुई है और अभी तक नहीं रुकी। हमें तो बहुत चिन्ता हो रही है।’
‘अरे, फिर तो देखिए, हम कैसे सही समय आये, ज़रूर इसमें टेलिपैथी का कुछ हाथ है,’ चण्डिका चहके। ‘आप डॉक्टर विनय कुमार हैं, होमियोपैथी के जाने-माने डॉक्टर हैं।’
अपने साथ आये सज्जन का परिचय दे कर चण्डिका ने एक ही साँस में यह जानकारी दे दी कि डॉ0 विनय कुमार मुज़फ्फ़रपुर के रहने वाले हैं और वहाँ के सुप्रसिद्ध होमियोपैथ डॉ.आर.पी. शर्मा के साथ कई बरस काम कर चुके हैं और साल भर से दिल्ली में पैर जमाने की कोशिश में हैं, बल्कि कहा जाय कि पैर जमा चुके हैं और अपनी एक पुरानी साध को पूरा करने के मक़सद से चण्डिका के साथ नन्दू जी से मिलने आये हैं। 
यह सब जानकारी एक ही साँस में दे कर चण्डिका डॉक्टर विनय कुमार की तरफ़ मुड़े और बोले, ‘मगर वह काम बाद में। पहले नन्दू जी को इस लायक़ तो बनाया जाय कि वे हमारी मदद कर सकें।’ 
यह कह कर चण्डिका ने डॉ0 विनय कुमार की तरफ़ देखा, मानो गेंद उन्होंने अब गोल के नज़दीक पहँच कर अग्रिम पाँत के सही खिलाड़ी को सौंप दी हो, और अपनी सवालिया निगाहें डॉ0 विनय कुमार पर गड़ा दीं।
‘कब से आ रही है हिचकी आपको?’ डॉक्टर विनय कुमार ने चन्दू से पूछा।
‘कल रात खाने से पहले से,’ नन्दू जी ने जवाब दिया।
‘अच्छे-भले शाम को काम से घर लौटे थे,’ बिन्दु ने तफ़सील दी, ‘चाय-वाय पी। बस, अचानक हिचकी शुरू हो गयी। खाना भी नहीं खाया। अभी मुश्किल से चाय पी है। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। यहाँ हम नये-नये आयें हैं। किसी को जानते नहीं कुसुम विहार में तो दस पड़ोसी थे, डॉ0 सुशील वर्मा भी नज़दीक थे, यहाँ किसी को दूसरे से जैसे कोई वास्ता ही नहीं...’ 
इतना कहते-कहते बिन्दु का स्वर मद्धम होते-होते अचानक रुंध-सा गया।
‘घबराने की कोई बात नहीं,’ डॉ0 विनय कुमार बोले, ‘हिचकी कोई रोग नहीं, एक कण्डिशन है। क़रीब-क़रीब उलटी आने जैसी - रिवर्स पेरिस्टॉल्सिस - जब शरीर स्वाभाविक रूप से खाने-पीने की चीज़ों को अन्दर लेने की बजाय बाहर फेंकता है या और तरीक़ों से रिऐक्ट करता है। शरीर का कुदरती उपाय है यह ख़ुद अपनी रक्षा करने का, उन चीज़ों से जो उसे महसूस होता है कि उसे सूट नहीं करतीं। कभी-कभी तीखी मिर्च खाने पर भी हिचकी आती है तो इसीलिए। इसके कुछ साइको-सोमैटिक कारण भी होते हैं।’ 
’साइको-सोमैटिक ?’ आदित्य प्रकाश ने फ़ौरन कहा,’यानी मनो-शारीरिक ?’
’हां, हमारा शरीर और मन तो आपस में जुड़े ही हैं न,’ इतना कह कर डॉ0 विनय कुमार चण्डिका की तरफ़ मुड़े और बोले, ‘गाड़ी में मेरा बैग रखा है, उसे मँगवा दीजिए।’
चण्डिका ने फ़ौरन अपने साथ आये युवकों में से एक को आवाज़ दे कर बुलाया और नीचे भेजा कि वह डॉ0 विनय कुमार का बैग ले आये। इस बीच सबका ध्यान डॉक्टर विनय कुमार पर जमा हुआ था। वे मझोली क़द-काठी और खुलते गेंहुए रंग के सुदर्शन व्यक्ति थे। यह उनकी स्वाभाविक वृत्ति थी या फिर होमियोपैथी जैसी चिकित्सा पद्धति अपनाने से बना स्वभाव, उनके लहजे में एक आश्वस्तिकारक भाव रहता था।

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