Wednesday, September 17, 2014

हिचकी

आख़िरी किस्त 


चौबीस

‘दरअसल, हमारा शरीर एक अत्यन्त जटिल मशीन है,’ डॉ0 विनय कुमार ने बात जारी रखी थी, ‘और इसका गहरा सम्बन्ध हमारे मन-मस्तिष्क से है। इसीलिए आपने देखा होगा कि जब दिमाग़ बहुत परेशान रहने लगे तो एसिडिटी की शिकायत हो जाती है। जीवन की भौतिक स्थितियाँ हमारे मन-मस्तिष्क पर और मन-मस्तिष्क की हलचल हमारे शरीर पर असर डालती हैं। इसीलिए आपने देखा होगा किसी अप्रिय समाचार या दृश्य को देखने पर उलटी आ जाती है। यह शरीर की स्वाभाविक क्रिया है।’
डॉ0 विनय कुमार बड़े धीर-गम्भीर अन्दाज़ में नन्दू जी को समझा रहे थे उनके हाव-भाव और लबो-लहजे में कुछ ऐसा आश्वस्त करने वाला भाव था कि पहले से बैठे साथी लोग तन्मयता से उनकी बातें सुनने लगे थे, यहाँ तक कि साथी अनिल वज्रपात के चेहरे पर भी हर चीज़ को सन्देह की नज़र से देखने का जो भाव स्थायी रूप से बना रहता था, वह तिरोहित तो नहीं, पर ढीला ज़रूर पड़ गया था। 
अचानक उन्होंने डॉ0 विनय कुमार की बातों में आयी हल्की-सी फाँक का फ़ायदा उठा कर टप्प-से कहा, ‘साथी बहुत वैज्ञानिक बात कह रहे हैं। मार्क्सवाद में भी एही तो कहा गया है न। भौतिक सत्ता और मन का द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध है।’
‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं,’ डॉ0 विनय कुमार अपने धीर-गम्भीर स्वर में बोले। ‘आम चिकित्सा पद्धतियों में शरीर और मन को अलग करके देखा जाता है, लेकिन होमियोपैथी में दोनों का सम्बन्ध मान कर रोग की जाँच की जाती है। इसीलिए दवा रोगी-रोगी के हिसाब से बदलती है, इसमें पेटेण्ट दवा जैसा कोई फ़ण्डा नहीं है। पुरानी सभी पद्धतियाँ इसी हिसाब से चलती थीं। हमारे यहाँ भी तो कहा गया है विषस्य विषमौषधम। होमियोपैथी भी ज़हर को ज़हर से काटने की कोशिश है।’
तभी दरवाज़े पर चण्डिका जी का मुण्डू नमूदार हुआ। उसके हाथ में एक नफ़ीस-सा चमड़े का बैग था, जैसा अमूमन दवाई कम्पनियों के प्रतिनिधि लिये रहते हैं। फ़र्क़ बस इतना था कि इस बैग में अन्दर एक ही ख़ाना था जिसमें क़रीने से काँच की छोटी-छोटी काग-लगी शीशियों में पानी की तरह तरल दवाइयाँ सजी थीं। चूंकि शीशियाँ सटा कर रखी हुई थीं, इसलिए दवा का नाम शीशी पर लगी चिप्पी के साथ-साथ स्याही से ऊपर काग पर भी अंकित था। 
डॉ0 विनय कुमार ने पल-दो पल सोच कर एक शीशी निकाली, उसकी चिप्पी पर लिखा नाम पढ़ा, फिर उसे वापस रख कर दूसरी शीशी निकाली। इसके बाद बैग के अन्दर से ही सफ़ेद काग़ज़ का छोटा-सा चौकोर टुकड़ा ले कर उस पर एक बड़ी बोतल से कुछ सफ़ेद गोलियाँ पलटीं और शीशी के तरल पदार्थ की कुछ बूंदें टपका दीं। टुकड़े को हलका-सा मोड़ कर, जिससे गोलियाँ नीचे न गिरें, उन्होंने नन्दू जी की तरफ़ बढ़ा दिया।
इस बीच सब लोग ख़ामोशी से, जैसे मन्त्र-बिद्ध, यह प्रक्रिया देख रहे थे। जेसे ही डॉ0 विनय कुमार ने मुड़ा हुआ काग़ज़ नन्दू जी की तरफ़ बढ़ाया, सब लोगों पर छाया हुआ जादू मानो एकबारगी टूट गया और एक हलचल-सी हुई।
‘यह डोज़ ले लीजिए। दो ख़ूराक़ और बना देता हूं, पन्द्रह-पन्द्रह मिनट पर लेनी है,’ डॉक्टर विनय कुमार ने कहा, ‘उम्मीद है, इतने से आराम आ जायेगा। वैसे मैं एक शीशी में दूसरी दवा भी दे रहा हूं। हिचकियाँ बन्द न हों तो दो घण्टे के बाद उसकी पाँच गोलियाँ ले लीजिएगा और चार-चार घण्टे पर लेते रहिएगा। हालाँकि मेरे ख़याल से उसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी।’
यह कह कर डॉ0 विनय कुमार ने तत्परता से दो पुडि़यों में पहली दवा बनायी और और बैग में रखी छोटी-सी ख़ाली शीशी में दूसरी दवा बनाने लगे। माहौल पर इतनी देर से जो सक़ता-सा छाया हुआ था, उसके टूटने पर लोग हरकतज़दा हो उठे थे। यह डॉ0 विनय कुमार के व्यक्तित्व का कमाल था कि उनकी दवा के असर का, नन्दू जी की हिचकियों की तीव्रता भी हलकी-सी कम हो गयी जान पड़ती थी।
अब नन्दू जी को अपने कर्तव्य का भी ख़याल आया। उन्होंने बिन्दु से चाय बनाने के लिए कहा।
‘नहीं, नहीं, भाभी जी,’ चण्डिका ने फ़ौरन उसे रोका, ‘चाय किसी और दिन। अभी हमें यहाँ कइयो बार आना है।’
अचानक उनका ध्यान गया कि इस बीच कॉमरेड राम अँजोर मूढ़े से उठ खड़े हुए थे।
‘बैठिए अभी, साथी,’ चण्डिका ने राम अँजोर को बैठने के लिए कहा, ‘कुछ राय आपकी भी दरकार होगी। बात यह है,’ उन्होंने राम अँजोर के बैठने का इन्तज़ार करके पल भर बाद कहा, ‘डॉक्टर विनय कुमार एक पत्रिका निकालने की योजना बना रहे हें और उसी में आप सबकी मदद चाहिए।’
‘कैसी पत्रिका?’ अब तक ख़ामोशी से इस सारे व्यापार को देख रहे आदित्य प्रकाश ने पूछा।
‘विचार प्रधान पत्रिका,’ चण्डिका ने फ़ौरन जवाब दिया। ‘बाक़ी बात डॉक्टर साहब ख़ुद बतायेंगे।’
‘अभी एक रफ़-सा आइडिया है दिमाग़ में,’ डॉ0 विनय कुमार ने कहा, ‘अर्सा पहले जैसे ‘दिनमान’ पत्रिका निकलती थी, वैसी ही कुछ-कुछ। वह साप्ताहिक थी, हम मासिक निकालेंगे। ज़ाहिर है, ख़बरों का हिस्सा कम, विश्लेषण और बहस का हिस्सा ज़्यादा होगा। पत्रिका विचार प्रधान होगी।’
‘मगर साथी,’ अनिल वज्रपात ने टीप जड़ी, ‘जैसा हमारे कवि मुक्तिबोध कहते थे, पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’
‘विचार-विमर्श का खुला मंच होगा,’ डॉ0 विनय कुमार ने स्पष्ट किया। ‘हम रज़ामन्दों को राज़ी करने के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों को राज़ी करने के लिए पत्रिका निकालेंगे जिनका ख़याल है कि चीज़ें बदल नहीं सकतीं। और ऐसा पहले से तैयार की गयी कोई घुट्टी पिला कर नहीं, खुली बहस से होगा।’
‘इसीलिए हम आपके पास आये थे,’ चण्डिका ने नन्दू जी से कहा, ‘यह कहने कि आप भी हमारी टीम में शामिल होइए, सम्पादक मण्डल में, लेकिन आप तो भीष्म पितामह बने हुए थे।’ और वे ठठा कर हँसे। ‘ख़ैर, आपके कान में बात डाल दी है। डॉक्टर साहब ने रजिस्ट्रेशन के लिए अर्ज़ी दे दी है। इस बीच आप सोचिएगा पत्रिका की रूप-रेखा कैसी हो। अब हम चलते हैं, अभी हमको राम किशुन पासवान के यहाँ जाना है, इन दो साथियों के काम से।’ और उठते हुए उन्होंने बाहर खड़े युवकों में से एक को आवाज़ दी, ‘राजू।’
युवक के अन्दर आने पर चण्डिका ने उसे डॉ0 विनय कुमार का बैग उठा कर गाड़ी में रखने के लिए कहा। फिर वे पहले से बैठे लोगों की तरफ़ मुड़े जो इस बीच उठ कर खड़े हो गये थे। ‘आप लोगों को अगर कहीं जाना है तो हम आपको छोड़ते हुए निकल जायेंगे,’ उन्होंने राम अँजोर से कहा।
‘जाना तो अब पाटियै आफिस है,’ राम अँजोर ने कहा और फिर कुछ हिचकते हुए बोले, ‘मुदा आप चलिए, हम बाद में आ जायेंगे। फिर हम चार जने हैं।’
‘अरे तो क्या हुआ,’ चण्डिका ने कहा, ‘हम समूचा ट्रक लिये हैं। क्वालिस गाड़ी है ई साथी लोग की, रस्ते में थोड़ा और गप-शप हो जायेगी।’
लेकिन राम अँजोर की हिचकिचाहट को देख कर सीपीडी फ़ौरन समझ गये कि जिस काम से वे लोग नन्दू जी के पास आये थे, वह अभी पूरा नहीं हुआ है। चण्डिका को मालूम था कि आम तौर पर दूसरे की फटी चादर में पैर डालना चाहे नागवार समझा जाता हो और घाटे का सौदा, मगर राजनीति में कई बार छप्पर से गिरी थैली-सरीखा होता है।
‘नन्दू जी से बात करना है तो कर लीजिए, हम पाँच-सात मिनट रुक जाते हैं,’ वे बोले।
राम अँजोर ने सवालिया नज़रों से नन्दू जी की तरफ़ देखा तो नन्दू जी कसमसाये।
‘साथी, आप ऊ चिट्ठी पढ़ लिये थे?’ राम अँजोर ने पूछा।
नन्दू जी ने सिर हिलाया लेकिन जवाब देने की बजाय एक हिचकी ली।
‘फिर, कुछ सोचे आप?’
नन्दू जी के पास कोई जवाब होता तो देते। वे जिस राह पर चल पड़े थे, उसमें अब मुड़ कर उस कम्यून-सरीखी मानसिकता में लौटना उनके लिए सम्भव नहीं रह गया था। फिर वे अगर ख़ुद को और बिन्दु को किसी तरह तैयार कर भी लेते, तो मकान-मालिक बंसल जी को कैसे मना पाते। अगर बंसल जी ने एक बार अपने मख़सूस लहजे में कह दिया कि ‘हमने तो जी मकान आपको रैने के लिए दिया है, हस्पताल खोलने के लिए नहीं,’ तो वे क्या करेंगे।
जब उनकी ख़ामोशी स्वीकृत अवधि को पार कर गयी तो चण्डिका ने सक्रिय हस्तक्षेप की सोची और बोले, ‘तनी हमको भी समस्या बतायी जाय, साथी। हो सकता है, कोई हल निकल आये।’
अब बिन्दु ने, जो काफ़ी देर से खड़ी यह मौन सवाल-जवाब का खेल देख रही थी, लगाम अपने हाथ में ली। ‘बात यह है भाई साहब कि दिनेश कुमार जी को तो आप जानते ही हैं, इनके बड़े भाई, बुज़ुर्ग, सभी कुछ हैं, उन्हीं को ले कर परेशान हैं।’
‘अरे, तो बताइए न,’ चण्डिका ने कहा, ‘सारी परेशानी मिल कर दूर की जा सकती है।’
‘उन्हीं का पत्र आया है। पिछले साल एक लाठी चार्ज में उनकी टाँग टूट गयी थी, उसी का इलाज कराना है। यहाँ। और जगह पार्टी ऑफ़िस में है नहीं। हमारे लिए चिट्ठी भेजी थी, पर हमारे यहाँ भी दिक़्क़त है। हम तो चलो जैसे-तैसे गुज़ारा कर लें, आख़िर दिनेश जी बड़े भाई जैसे हैं, पर इस मकान मालिक को क्या कहेंगे। वैसे ही नाक में दम किये रखता है।’
‘तो ई सब आप लोगों ने हमें पहले क्यों नहीं बताया,’ चण्डिका ने कहा, ‘हम पराये थोड़े ही हैं। क्या हम नहीं जानते साथी दिनेश कुमार के बारे में? चलिए, अभी एम्स में डॉ0 विनोद खुराना को फ़ोन करके टाइम लेते हैं। वहीं इलाज का बन्दोबस्त हो जायेगा। रहने का क्या है, हम तो आजकल भाई साहब के साथ उनके एम.पी. फ़्लैट ही में रहते हैं, दिनेश जी को हम अपने डिफ़ेन्स वाले मकान में ठहरा देंगे। एम्स के पास रहेगा।’ वे राम अँजोर की तरफ़ मुड़े, ‘चलिए साथी, हमको रास्ते में सब डिटेल बताइए। हम सीपीएम छोड़ दिये हैं, पर पुराने सम्बन्ध थोड़े ही तोड़े हैं। फिर दिनेश जी तो हमारे पुराने साथियों में से हैं। चलिए, रास्ते में सब फरिया लिया जायेगा।’
सब लोग चलने के लिए उठ खड़े हुए तो नन्दू जी भी उठ कर टेरेस पर आये। डॉ0 विनय कुमार ने जेब से अपना कार्ड निकाला और नन्दू जी की तरफ़ बढ़ाया।
‘यह मेरा कार्ड है, दोनों फ़ोन हैं इसमें, घर का भी और क्लिनिक का भी। कोई परेशानी हो फ़ोन करने में संकोच मत कीजिएगा।’
‘लाइए, हम भी अपना नम्बर लिख दें,’ चण्डिका ने रास्ते ही में कार्ड थामते हुए कहा और उसकी पिछली तरफ़ अपना फ़ोन नम्बर लिख दिया। 
कार्ड को नन्दू जी की तरफ़ बढ़ाते हुए वे बोले, ‘कोई समस्या हो फ़ोन करने से हिचकिएगा नहीं। उम्मीद है संझा तक आराम आ जायेगा। बस, अब आप पत्रिका की रूप-रेखा तैयार कर लीजिए।’ यह कह कर वे मुड़े और बिन्दु से बोले, ‘अच्छा भाभी जी, चाय अगली बार पियेंगे। और घबराइए नहीं, सब सेट हो गया तो पत्रिका का अपना ऑफ़िस होगा और उधर ही एक अच्छा-सा फ़्लैट खोजा जायेगा आप के लिए।’
यह कह कर वे मुड़े और सभी लोगों को अपनी अर्दल में लिये सीढि़याँ उतर गये। नन्दू जी लौट कर पहले ही तरह दीवान पर ढह गये। हिचकियों की तीव्रता में कुछ कमी तो आयी थी, मगर वे आ अब भी रही थीं। अलबत्ता हिचकियों के बीच का फ़ासला काफ़ी बढ़ गया था। उन्होंने घड़ी पर नज़र डाली और डॉ0 विनय कुमार की दी हुई पुडि़या खोल कर दवा फाँक ली।
बिन्दु ने इस बीच चाय के मग और कॉमरेड वज्रपात की बीडि़यों के प्लेटों से भरी कटोरी ले जा कर रसोई के सिंक में रख दी थी। जब वह लौट कर बैठक में आयी तो नन्दू जी दीवान पर चित लेटे हल्के-हल्के ख़र्राटे ले रहे थे।
अब यह कहना मुश्किल है कि यह बंसल जी के चूरन का कमाल था, या नन्दू जी के भाई की झाड़-फूंक और तावीज़ का, डॉ0 विनय कुमार की दवा की करामात थी या चण्डिका प्रसाद द्विवेदी उर्फ़ सीपीडी के आश्वासन की, दोपहर बाद जब स्वामी नन्दू जी से मिलने आया और वे उठे तो उन्हें तबियत काफ़ी हल्की लगी थी और कुछ देर बाद ही अचानक यह एहसास हुआ था कि उनकी हिचकियाँ बिलकुल बन्द थीं। रात उन्होंने दो दिनों में पहली बार तृप्त हो कर खाना खाया था और चैन की नींद सोये थे।
अगली शाम प्रकाशन के दफ़्तर से बाहर आ कर उन्होंने डॉ0 विनय कुमार को अपने बिलकुल ठीक हो जाने की ख़बर दी और यह भी बताया कि उन्होंने पत्रिका का एक रफ़ ख़ाका तैयार कर लिया है। यही सूचना उन्होंने सीपीडी उर्फ़ चण्डिका प्रसाद द्विवेदी को देते हुए कहा था कि पत्रिका पर काम शुरू करने के लिए जब चाहें बैठ जायें।
लेकिन यह सब करते हुए उन्होंने चन्दू गुरु का तावीज़ अपनी बाँह पर बँधा ही रहने दिया था।
                                                                                                                                             
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