Tuesday, June 28, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सैंतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४७



मित्रता की सदानीरा - २६


उन दिनों जनसत्ता और नवभारत टाइम्स के दफ्तर, आईटीओ के पास बहादुर शाह जफर मार्ग पर थे। मंगलेश जनसत्ता में था और रब्बी और विष्णु नागर वगैरा नभाटा में। दिन भर वहाँ लोगों जमघट लगा रहता और अशोक वाजपेयी के खिलाफ बयान की तैयारियां चलतीं। रघुवीर सहाय भी इन तैयारियों में शामिल थे। जाहिर है, अनेक कवि अतीत में अशोक वाजपेयी द्वारा उपकृत हो चुके थे, कला परिषद और भारत भवन जा चुके थे, बहुत-से कवि मिजाजन मरंजामरंज थे, इसलिए सारी कोशिश बयान की धार को गोठिल होने से बचाने की थी। अन्तिम प्रारूप को रघुवीर सहाय ने काफी डाइल्यूट करके पास कर दिया और अब इन्तजार सिर्फ नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के हस्ताक्षरों का था। ये दोनों तब जे.एन.यू. में थे और लगातार टालमटोल कर रहे थे। अन्त में उन्होंने बयान पर हस्ताक्षर नहीं ही किये थे और वह उनके नामों के बिना जारी हुआ था।

इस बीच इस सारी ढीलापोली से खीझ कर मैंने एक टिप्पणी ‘उत्सव या तेरही’ के शीर्षक से जनसत्ता में प्रकाशित करा दी। अगले दिन जब रघुवीर सहाय मिले तो उन्होंने शिकायत के-से अन्दाज़ में कहा था कि आपने तो टिप्पणी में सब कुछ लिख ही दिया है। मानो मैंने कोई सेंध लगा दी थी। मैंने उनसे कहा था कि अव्वल तो मेरी टिप्पणी आपके बयान से कहीं अधिक तुर्श है, दूसरे वह इस मामले में कुछ ऐसे पक्षों पर भी चर्चा करती है जो आपके बयान के दायरे के बाहर छूट गये है। और तीसरे यह कि आप लोगों के ढुलमुल रवैये से मेरा मन उकता चुका था। जहां इतने सारे लेखक हस्ताक्षर कर रहे थे, वहाँ नाहक नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के हस्ताक्षर करने की बाट जोहते रहना उन सारे लेखकों के अपमान-सरीखा है, जिन्होंने बिला चूं-चरा के बयान पर हस्ताक्षर कर दिये थे। सहाय जी दुखी हो कर चले गये थे और वह बयान बाद में वैसे ही जारी हुआ था। इस बीच मेरी टिप्पणी को ‘शव पर बैठ कर बहूभात खाना’ का शीर्षक दे कर नव भारत टाइम्ज़ और अमर उजाला ने उद्धृत किया था।

दिल्ली से मैं वापस इलाहाबाद चला गया था और बाकी काम-काज के साथ पहल के अंक और उनके साथ जाने वाली पुस्तिकाएं छपवाने में जुट गया था। ज्ञान उन दिनों मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ में बहुत सक्रिय था, कमला प्रसाद पाण्डे भी उसके साथ थे और संघ के सम्मेलन और बैठकें जगह-जगह हो रही थीं। मैं खुद 25, 26, 27 अक्तूटर 1985 को होने वाले जन संस्कृति मंच के स्थापना सम्मेलन की तैयारियों में व्यस्त था। ऐसी हालत में ज्ञान से भेंट-मुलाकात कम और खतो-किताबत ज़्यादा होती चली गयी थी और वह भी बड़ी कारोबारी क़िस्म की।

उस जमाने में किताबों और पत्र-पत्रिकाओं को छपाने के लिए आज जैसी सुविधाएं नहीं थीं। दिल्ली जैसी कुछ जगहों में फोटो-कम्पोजिंग की तकनीक आ गयी थी, लेकिन उसका भी इस्तेमाल इक्का-दुक्का साधन-सम्पन्न लोग ही कर पाते थे। हाथ से कम्पोजिंग होती थी और चूंकि बड़े-से-बड़े प्रेस में भी असीमित टाइप नहीं होता था, इसलिए अमूमन दो-चार फर्मे ही एक बार में कम्पोज हो पाते। इनके भी दो-दो बार प्रूफ पढ़ कर गलतियां सुधारने और फिर उन्हें छाप कर आगे की सामग्री को कम्पोज करने के लिए टाइप खाली करने में समय लगता था। इसलिए देर-सबेर होती ही रहती और ज्ञान की सारी शिकायतें ‘पहल’ या ‘पहल पुस्तिका’ के छपने में हुए विलम्ब से सम्बन्धित होतीं और दूसरे खतों में दीगर किस्म के व्यावहारिक ब्यौरे होते। पुराने दिनों में ज्ञान के पत्रों में जो मस्ती, बेफिक्री और ताजगी होती थी, वह कहीं बहुत नीचे दब गयी थी।

तभी ज्ञान ने ‘पहल’ के एक महत्वाकांक्षी अंक की योजना बनायी। 1978-79 में ‘पहल’ का एक कवितांक मंगलेश, वीरेन और मेरे सहयोग से वह प्रकाशित कर चुका था। फिर उसने ‘पहल’ का ‘मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र विशेषांक’ निकाला था। 1985 के अन्त में उसने ‘पहल’ का कहानी विशेषांक प्रकाशित करने का फैसला किया। सामग्री इकट्ठा होने लगी।

इसी बीच हुआ यह कि हमारे पुराने प्रेस वाले अमीन साहब ने, जिनकी टाइप फाउण्डरी भी थी और जो अपने ‘स्टार प्रिंटर्स’ नाम के प्रेस में ‘पहल’ छापते थे, अचानक अपना प्रेस बन्द कर दिया। अमीन साहब के यहाँ ‘पहल’ ही नहीं, हमारे प्रकाशन का भी बहुत काम होता था। वे बहुत भले और लिहाजदार आदमी थे, उधार वगैरा में मुख्वत से काम लेते, जिसकी वजह से ज्ञान को भी राहत रहती। खैर, जब उन्होंने ऐसे वक्त, जब हमें पहले से सधे हुए प्रेस की सबसे ज़्यादा जरूरत थी, अपना प्रेस बन्द करने का फैसला किया तो मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल नया प्रेस खोजने का था।

मैंने ढूंढ-ढांढ कर ‘किशोर प्रिंटर्स’ के नाम से एक प्रेस तय कर लिया, जिनके यहाँ महज कम्पोजिंग की सुविधा थी, छपाई वे बाहर के किसी प्रेस में कराते थे। मैंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रेस में छपाई की व्यवस्था करा दी। चूंकि अंक धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा था और मैं ज्ञान के फैसलों पर निर्भर था, इसलिए मैंने छपाई का आम कागज लगाने की बजाय अच्छे न्यूज प्रिंट पर अंक को छापने का फैसला किया। उन दिनों विदेश से चिकना न्यूज प्रिंट आता था और उस पर छपाई बहुत अच्छी होती थी। लेकिन वह पुस्तकों के प्रकाशकों में लोकप्रिय नहीं था, अख़बारों के अलावा वह पत्र-पत्रिकाओं में इस्तेमाल होता था। प्रूफ वगैरा चूंकि ज़्यादातर मैं खुद ही पढ़ता था और आवरण अशोक भौमिक बनाने थे।

आज तो अशोक भौमिक ख़ासे बड़े चित्रकार हो गये हैं, उनमें चित्रकला की सूझ-बूझ के साथ उन गुणों की भी कोई कमी नहीं है जिनसे प्रसिद्ध हुआ जाता है, वे एक ही वक्त पर शेर और बकरी से दोस्ती निभाने में माहिर हैं, लेकिन जब की बात मैं कर रहा हूं उन दिनों वे दो-तीन साल पहले ही आज़मगढ़ से इलाहाबाद आये थे, ईस्ट इन्डिया फार्मास्यूटिकल्स में विक्रय प्रतिनिधि थे और कला और साहित्य को एक साथ साधने की कोशिश कर रहे थे। उनके अनुरोध पर मैंने ज्ञान से कह कर आवरण के खाते में एक मानदेय की व्यवस्था करा दी थी। यों मैंने अशोक जी से कहा था कि मित्र, मैं तो ज्ञान से इस सारी भाग-दौड़ वगैरा के खाते कुछ लेता नहीं, मोटर साइकिल का पेट्रोल भी अपने पास से डलाता हूं, जो प्रूफ खुद पढ़ता हूं, उनके पैसे नहीं लेता, यहाँ तक कि अगर ‘पहल’ में नीलाभ प्रकाशन का विज्ञापन छपता है तो उसके भी पैसे देता हूं, लेकिन आपकी मांग उचित है, उसूलन तो हमें ‘पहल’ के लेखकों को भी पारिश्रमिक देना चाहिए जो हम नहीं दे पाते, तो भी आपके लिए मैं प्रबंध कर दूंगा।

तब मुझे क्या मालूम था कि आगे चल कर इस सबका सिला मुझे किस सूरत में मिलने वाला है।
(जारी)

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