Monday, June 27, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की छियालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४६



मित्रता की सदानीरा - २५


आज सोचता हूं तो लगता है कि 1980 के दशक ही से साहित्यिक जगत में वह तब्दीली आनी शुरू हो गयी थी, जो आज अपने उरूज पर है - या तो परस्पर पीठ-खुजाऊ, अहो-अहो मार्का गिरोह हैं या फिर भयंकर वैमनस्य और हर स्तर पर उन साथी रचनाकारों को नीचा दिखाने की कोशिश, जिनसे हमारे कारूरे नहीं मिलते। छोटे-छोटे क्षत्रपों की तरह के दरबार हैं। पुरस्कारों के लिए जोड़-तोड़ और समझौते हैं। लेखन जनता की आकांक्षाएं व्यक्त करके उनके संघर्षों में हाथ बटाने का उपक्रम नहीं, बल्कि सत्ता के और निकट जाने यहाँ तक कि बज़ाते-खुद सत्ता बन जाने का साधन है। कब कौन कहां टूट कर चला जायेगा कोई हिसाब ही नहीं है। ढेरों लोग अब जिस्म नहीं सिर्फ़ दाहिना हाथ बनने की फ़िक्र में ग़लतान रहते हैं, ताकि आराम से बदलते हुए लोगों में फ़िट हो जायें। एक बन्दा जाये तो ख़दशा न रहे कि बाबू अब अपना क्या होगा। दाहिने हाथ की तलाश दूसरी तरफ़ को भी होती है। ऐसी अजीबोगरीब हमबिस्तरियां हैं कि दिमाग चकरा जाता है। पूरा प्रयोजन मूलक हिन्दी का युग है - प्रयोजन है तो मित्रता और संग-साथ है, अन्यथा जै राम जी की।

बहरहाल, उस यात्रा की दूसरी बात जो मुझे याद रह गयी है वह ज्ञानरंजन के साथ राजेश जोशी का तीखा पत्र-व्यवहार था जो हाल ही में हुआ था। राजेश का कहना था कि भोपाल गैस काण्ड और सिखों के नरसंहार के बाद प्रगतिशील लेखक संघ को -- जिसका वह सदस्य था और ज्ञानरंजन महासचिव और परसाई जी अध्यक्ष -- कुछ बयान देने चाहिएं थे, जनता के साथ खड़ा होना चाहिए था। बकौल राजेश, उसने आवाहन किया था कि प्रलेस के जितने लोग उच्चस्तरीय समितियों में थे, उन्हें विरोध में बाहर आ जाना चाहिए। जबकि प्रगतिशील लेखक संघ इससे कतरा रहा था। यह देख कर राजेश ने इस्तीफा दे दिया था। दिलचस्प बात यह थी कि प्रलेस भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ी हुई थी (जैसे जलेस मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी से और जसम सीपीआई माले लिबरेशन से) और सभी कम्यूनिस्ट पार्टियों की तरह विरोध में किसी का इस्तीफा नहीं स्वीकारा करती थी। राजेश के इस्तीफे के दो महीने बाद उसे प्रलेस से निकाल बाहर किया गया और इसकी सूचना सबको दे दी गयी। राजेश पुराना यूनियनबाज़ था जबकि न तो ज्ञान को, न परसाई जी को यूनियनबाजी हथकण्डों का इल्म था। राजेश ने जवाबी सर्कुलर जारी करके यह सवाल उठाया था कि जब वह पहले ही इस्तीफा दे चुका था तब उसे दो महीने बाद निकालने का सर्कुलर जारी करने का क्या तुक था। और इस जवाबी सर्कुलर में राजेश ने संगठन पर और भी आरोप लगाते हुए रायता फैला दिया था।

उधर ज्ञानरंजन के एक आरोपों में से यह था कि राजेश पहले से संगठन विरोधी कार्रवाइयां कर रहा था। इस आरोप में कुछ सच्चाई भी थी, क्योंकि माकपा और जलेस से भी राजेश का कुछ टांका भिड़ा हुआ था। यह बात इसलिए कह रहा हूं कि उसी समय राजेश ने मुझे रमेश उपाध्याय का वह अन्तर्देशीय भी दिखाया था, जिसमें रमेश ने और बातों के अलावा अन्त में राजेश के सर्कुलर का हवाला देते हुए बड़े मानीखेज़ ढंग से पूछा था कि अब उसका क्या करने का इरादा है। शब्द मुझे इतने वर्षों बाद याद नहीं रह गये हैं, पर उनमें निहित न्योता पंक्तियों के बीच साफ पढ़ा जा सकता था।

राजेश के रवैये के बारे में ज्ञान को जो एतराज़ थे, वे इतने बेबुनियाद नहीं थे; इसका कुछ-कुछ मुझे भी अन्दाज़ा रहा था। कारण यह कि जब मैं 1975 में राजेश से मिला था तब उसने अशोक वाजपेयी और उनकी पत्रिका "पूर्वग्रह" के खि़लाफ़ जो सैद्धान्तिक लड़ाई छेड़ रखी थी, वह उसने बहुत जल्दी ताक पर धर दी थी, इसलिए नहीं कि अशोक वाजपेयी का अपना रुख़ बदल गया था, बल्कि इसलिए कि राजेश को अपने भर्तृहरि के अनुवाद "पूर्वग्रह पुस्तिका" के तौर पर छपवाने थे। "पहल" की ओर से प्रकाशित की जा रही पुस्तिकाओं में पहली पुस्तिका -- माच्चू पिच्चू के शिखर -- के मेरे अनुवाद बाद दूसरी पुस्तिका राजेश की लम्बी कविता "समर गाथा" थी। इधर का मोर्चा सर कर लेने के बाद राजेश ने प्रकट ही "उधर" के मोर्चे को भी सर करने की ठानी होगी।

वैसे भी राजेश के लिए प्रतिबद्धता महज़ अपने प्रति जुड़ाव का नाम है, उसका सिद्धान्तों से कुछ लेना-देना नहीं है। कभी श्रीकान्त वर्मा के ख़िलाफ़ हो गये कभी श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार ले लिया; कभी महाश्वेता देवी के लिए आवाज़ बुलन्द की और फिर दूसरे ही दिन गोपीचन्द नारंग से पुरस्कार ले लिया, जो घोषित तो हो ही चुका था और घर भी भेजा जा सकता था। दर असल, यही वह बीज था जो आज अपने सब से ज़हरीले रूप में प्रकट हुआ है जब हमारे साथी, जो जनता की पक्षधरता का दावा करते नहीं थकते, कुख्यात पुलिस अफ़सरों की पुस्तकों के लोकार्पण में बेशर्मी से मुस्कराते हुए उनके साथ फ़ोटो खिंचवाते हैं और नाना प्रकार से उपकृत होते हैं।

आज तो प्रलेस और जलेस से जुड़े लेखक जसम से जुड़े लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के साथ मिल-जुलकर कार्यक्रम करने से नहीं हिचकते और यही हाल भाकपा, माकपा और भाकपा माले लिबरेशन का है, जिन्होंने अपनी-अपनी गलत राहों पर चलते हुए हाल ही में बिहार के प्रान्तीप चुनावों में मुँह की खायी है और कहा जाय मैदान भगवा भेडि़यों के लिए खुला छोड़ दिया है, लेकिन उन दिनों भाकपा और प्रलेस के लोग जिन्होंने आपातकाल में इन्दिरा निरंकुशता का समर्थन किया था और भाकपा तथा जलेस के लोग जिन्होंने आगे चल कर वी.पी. सिंह की सरकार की बैसाखी बनने में भाजपा का साथ दिया था और बंगाल में पार्टी की तानाशाही कायम कर दी थी, भाकपा माले लिबरेशन से वैसे ही कन्नी काटते थे जैसे भद्रजन मुहल्ले के गुण्डे से और इस पार्टी पर सी.आई.ए. के एजेण्ट होने का और विदेशी पैसे से चलने का आरोप लगाते थे। ये वही लोग थे, जिन्होंने अपने समय में सोवियत संघ से अकूत पैसे इस या उस तरीके से हासिल किये थे।

चूंकि मैं तब तक जसम के स्थापना सम्मेलन की तैयारियों में जुटा हुआ था। इसलिए राजेश ने थोड़ी-बहुत छींटाकशी मुझ पर की थी, लेकिन एक तो वह मुझे बहुत पहले से जानता था, दूसरे मेरे अलावा वेणु भी तीसरी धारा का समर्थक था और वह भी राजेश के मित्रों में था इसलिए यह छींटाकशी हंसी-मजाक के दायरे से बाहर नहीं हुई थी।

पाला बदलने को लेकर मेरे मन में हमेशा एक शंका रही है, इसलिए राजेश के सर्कुलर से मुझे अफसोस हुआ था। ज्ञान रंजन और परसाई जी में कमियां रही होंगी, इससे मुझे एतराज नहीं। परसाई जी तो अर्से से भाजपा का विरोध और इन्दिरा गान्धी और उनकी कांग्रेस पार्टी का समर्थन करते रहे थे, लेकिन ज्ञान ने "पहल" में सभी धाराओं के वामपन्थियों को प्रकाशित किया था। राजेश का इस्तीफा देना तो मेरी समझ में आता था, पर आनन-फानन जलेस में जा जुड़ना नहीं। शायद मैं थोड़ा पुराने ढंग से चीजों को देख रहा था, जहां संस्कृति और राजनीति में आपसी सम्बन्ध होता था और विचारधारा इस सम्बन्ध को सुनिश्चित और परिभाषित करने का काम करती थी। चूंकि विचारधारा के स्तर पर हमारा यानी नक्सलवादी धारा की वामपन्थी पार्टियों और नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चों का मतभेद भाकपा और माकपा और उनके लेखक संगठनों से था इसलिए हम जसम बनाने की ओर बढ़ रहे थे। राजेश का मतभेद विचारधारा के स्तर पर नहीं, बल्कि कार्यशैली के स्तर पर था। बाद में भाकपा और जलेस भी कांग्रेस समर्थन के थान पर जा खड़े हुए और एक लम्बे समय तक कांग्रेस और भाजपा दोनों का विरोध करने वाली पार्टी भाकपा माले लिबरेशन अन्ततः चुनावी समझौतों की जिन दलदल में जा फंसी वह अब शीशे की तरह साफ हो चुका है।

लेकिन तब इस नौबत को आने में देर थी और मेरा ध्यान ज्ञानरंजन-राजेश जोशी-परसाई-प्रलेस विवाद से कहीं ज़्यादा जसम की तैयारियों में लगा हुआ था। तो भी चूंकि भोपाल गैस त्रासदी के बावजूद अशोक वाजपेयी भोपाल में विश्व कविता उत्सव करने पर आमादा थे, इसलिए मैं इस सम्वेदनहीनता के खिलाफ राजेश के साथ था। बीच की कथा यह थी कि उस समय श्रीकान्त वर्मा संस्कृति सचिव नाज़रेथ की मदद से विश्व कविता उत्सव दिल्ली में करना चाहते थे। उधर अशोक वाजपेयी इसे भोपाल में करने के लिए इतने व्यग्र थे कि उन्होंने विश्व कविता उत्सव को भोपाल में पहले से तयशुदा तिथियों में करने के औचित्य को ‘मुर्दों के साथ कोई मर नहीं जाता’ जैसा हृदयहीन वक्तव्य दे कर साबित करने की चेष्टा की थी। उनके इस बयान की तीखी प्रतिक्रिया हुई थी और जब मैं भोपाल से दिल्ली पहुंचा तो वहाँ कविगण -- खास तौर पर जो अशोक वाजपेयी के खेमे में नहीं थे -- नाराज़ मधुमक्खियों की तरह भनभना रहे थे।
(जारी)

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