Monday, June 13, 2011

देशान्तर

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चौंतीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३४



मित्रता की सदानीरा - १३




‘दीवार’ और ‘जंजीर’ से पहले के युग में हिन्दी फिल्में सिंगल स्टार फिल्में हुआ करती थीं। एक नायक, एक नायिका, एक खलनायक और कभी-कभार खलनायिका भी। लेकिन 1970 के दशक में यह पिछला सिलसिला टूट गया। अब फिल्म को सफलता से अन्त तक पहुंचाना एक अभिनेता के बस का नहीं रहा। लिहाजा कई नायकों, कई नायिकाओं, कई खलनायकों वाली फिल्में बनने लगीं। नायक और खलनायक में जो विभाजन रेखा पहले साफ-साफ खिंची हुई थी, वह धूमिल होने लगी। ‘शोले’, ‘अमर अकबर ऐन्थनी’, ‘सुहाग’, ‘त्रिशूल’ गिनाते चले जाइए।

इसी के ज़ेरे-असर तो नहीं, मगर इसी के बरक्स दोस्तियों का स्वरूप बदला। पहले जहां द्विपक्षीय दोस्तियां होती थीं, अब दोस्तियों के लिए कई लोगों का होना जरूरी हो गया। जहां इससे एक सामाजिकता बढ़ी, वहीं वह जो दिल-से-दिल की बात हुआ करती थी, वह कम होती चली गयी। महफिलों में, चाहे वे कितनी ही गर्मजोशी से भरी क्यों न हों, दिल-से-दिल की बात का कोई मतलब न रहा। एक पर्देदारी-सी पनपने लगी। मेरे जैसे आदमी का जी उन पुराने ‘फुरसत के रात दिन’ के लिए तरसने लगा जब हम ‘तसव्वरेजानां’ नहीं, बल्कि ‘महफिलेजानां’ किये हुए बैठे रहते थे। दो दोस्तों के बीच खुली दिल की बातें होती थीं। लेकिन फिर मैंने अपने दिल को समझा लिया कि ‘जो नहीं है जैसे कि दिल से दिल की बात उसका गम क्या, वह नहीं है’ और जो था -- महफिलों और मजलिसों का एक मुतवातिर सिलसिला -- उसी से समझौता कर लिया।

मंगलेश ने ‘अमृत प्रभात’ के रविवासरीय अंक का सम्पादन करने के साथ-साथ उसके चौथे पृष्ठ की सामग्री की भी देख-रेख शुरू कर दी थी और जान-पहचान वालों को ‘अमृत प्रभात’ में लिखने के लिए न्योते देने लगा था। वीरेन और मैं उसके लिए स्तम्भ लिखने लगे, प्रभात भी कभी-कभी कविताएं या कोई छोटी-मोटी टिप्पणियां छपाने लगा। एक नयी तरह की गहमा-गहमी शुरू हो गयी। ‘अमृत प्रभात’ का दफ्तर भी हम लोगों के लिए एक अड्डा बन गया और चूंकि वीरेन और मंगलेश, दोनों के कारूरे कालिया से नहीं मिलते थे, चुनांचे ‘अमृत प्रभात’ के दफ्तर के अलावा कभी काफी हाउस पर बैठकें जमने लगीं, कभी मेरे या वीरेन के या फिर बडोला साहब के घर।

बडोला जी अच्छे अभिनेता ही नहीं थे, बल्कि उन्होंने कुछ समय तक विधिवत शास्त्रीय संगीत भी सीखा था। एकाध पेग अन्दर जाते ही वे कोई-न-कोई राग शुरू करते और उस राग की व्याख्या-विवेचन से ले कर संगीतकारों के किस्सों तक दुनिया जहान की बातें करते। चूंकि ज्ञान हो या मंगलेश या वीरेन या मैं -- हम सब हर तरह के मौज-मजे के मुरीद थे और ‘तन्त्री नाद कबित्त रस सरस राग रतिरंग’ में विश्वास रखते थे, इसलिए ये महफिलें अपनी फितरत में ‘इलाहाबाद प्रेस’ की साजि़श-भरी महफिलों से कतई अलहदा किस्म की थीं। यूं भी रवि के लिए ‘रस’ की अवधारणा -- वह चाहे जिस रूप में हो -- स्थूल थी, इसलिए यह टोली बिलकुल अलग थी। आज जिसे अशोक वाजपेयी रस-रंजन कहते हैं, उसे हम लोगों ने ‘पवित्र विचार’ का नाम दे रखा था और ‘चियर्स’ की जगह ‘नमस्कार’ कहने का चलन शुरू कर दिया था।

मंगलेश खुद शास्त्रीय संगीत, विशेष रूप से (उन दिनों) भीमसेन जोशी का दीवाना था (बाद में अमीर खां का नाम भी जुड़ गया) तीन-चार पेग पीने के बाद वह गाना शुरू कर देता और खूब मजा लगाता। मेरी शिक्षा-दीक्षा जैज और राक संगीत और फिर हिन्दी फिल्म संगीत पर हुई थी। मंगलेश और बडोला जी की संगत में मैंने शास्त्रीय संगीत को समझना तो नहीं, पर पसन्द करना सीख लिया। भीमसेन जोशी की एक रिकार्डिंग का कैसेट जो मंगलेश ने उन्हीं दिनों दिया था, मेरे पास आज तक मौजूद है। जल्द ही मैं भीमसेन जोशी से ग्रैजुएट करके कुमार गन्धर्व और किशोरी अमोनकर तक पहुंच गया। उन्हीं दिनों कुमार गन्धर्व का गाया त्रिवेणी का तवा दोबारा जारी हुआ। सूर, मीरा और कबीर के पदों को कुमार ने अपने नायाब अंदाज़ में गाया था। मैं उस तवे की दो प्रतियां ले आया, एक मैंने ज्ञान को दे दी और एक हम तीनों सुनते रहे। बाद में मैंने उसे कैसेट पर उतरवा लिया। यहीं नहीं, बल्कि अपने स्तम्भ में मैंने उस रिकाॅर्ड पर और कुमार की गायकी पर एक छोटी-सी टिप्पणी भी लिखी।

आज तो खैर हिन्दी का साहित्यिक जगत धीरे-धीरे एक गटर की सूरत अख्तियार कर चुका है। पुस्तकारों और प्रतिष्ठा की चूहा-दौड़ ने साहित्यकारों को चूहे बना दिया है। या कहें कि वह अब अहेरी पशुओं का समाज है, खौफ और शक-शुबहे से भरा, लेकिन 1985-90 से पहले तक लेखकों में बिरादराना भावना ख़त्म नहीं हुई थी। मुझे याद है कि ‘अमृत प्रभात’ में नियमित रूप से लिखना शुरू करने से पहले मैंने बहुत अधिक गद्य नहीं लिखा था। दो-चार लेख, एकाध काव्य-परिचर्चा के उत्तर, कुछ भूमिकाएं और समीक्षाएं बस। सारा ध्यान कविता में लगा रहता; हालांकि कविताएं भी बहुत ज़्यादा नहीं लिखी थीं, तो भी तीन कविता पुस्तकें और माच्चू पिच्चू के शिखर प्रकाशित हो चुकी थी। हेमिंग्वे और ओ’हेनरी की जीवनियों पर आधारित उपन्यास-नुमा पुस्तकें भी छपी थीं और कुछ नाटकों के अनुवाद और नाट्य-रूपान्तर भी। ढेर सारी सामग्री डायरियों में आधी-अधूरी हालत में थी। नियमित कालम और वह भी एक निश्चित आकार का, मैंने कभी लिखा न था। ऐसे में मंगलेश ने जिसकी शागिर्दी के दिन जनयुग, पेट्रियाट और प्रतिपक्ष जैसे अख़बारों में बीते थे बहुत सहारा दिया।

अकसर स्तम्भ की डेडलाइन के नजदीक आने पर मैं वीरेन के साथ अमृत प्रभात जा धमकता और कहता --‘यार मंगलेश, कुछ सूझ नहीं रहा, दिमाग एकदम सुन्न है।’ तब मंगलेश कुछ गुर सिखाता। मिसाल के लिए, वह कहता कि टिप्पणी की अच्छी शुरूआत के लिए कोई फड़कता हुआ फिकरा सोचो जिससे लेख पढ़ने वाले को बांध सके। फिर पैरा-दर-पैरा उसे बढ़ाते हुए अन्त तक ले जाओ और अन्त भी ऐसे जुमले से करो, जो पाठक के मन में देर तक बसा रहे। कथ्य को इस तरह फैलाओ या समेटो कि वह तय किये स्थान में ठीक-ठीक बैठ जाय। न तो काटना पड़े, न भरती की सामग्री से बढ़ाना पड़े। छोटे-छोटे टोटके और तकनीक की बारीकियां थीं, लेकिन मुझे इनसे बहुत मदद मिली और जब कुछ साल बाद मैं बी.बी.सी. में चला गया तो वहाँ बहुत काम आयीं।

मंगलेश और वीरेन के इलाहाबाद आ जाने के बाद मेरे लिए गहमा-गहमी बढ़ गयी। इसी दौर में आलोक धन्वा आन्ध्र से लौटता हुआ कुछ दिन इलाहाबाद में रुका और वीरेन के यहाँ ठहरा। आलोक से हम सभी 1970 से परिचित थे -- उसके व्यवहार की भावाविष्ट प्रवृत्तियों से भी और उसके अनोखे व्यक्तित्व से भी। इस प्रवास में हम उसकी सनकों से भी रूशनास हुए। कुत्तों से उसका डर, जरा सी तकलीफ को बढ़ा-चढ़ा कर खुद परेशान होने और दूसरों को परेशान कर देने की फितरत, उसका बातूनीपन, उसकी भयंकर आत्म-विभोरता जिसका कोई सानी नहीं था, ज्ञानेन्द्रपति और पंकज सिंह भी नहीं, और जिस पर मुझे उस अभिनेता का किस्सा याद हो जाता जो किसी जलसे में एक युवा अभिनेता को पौन घण्टे तक अपने बारे में बताने के बाद बड़े भोलेपन से बोला था, ‘देखो तो, मैं कितनी देर तक अपने ही बारे में बात करता रहा, तुम्हारे बारे में तो कुछ बात ही नहीं हुई। अच्छा बताओ मेरी फलां फिल्म के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’ आलोक उन दिनों जिससे भी मिलता, यही बताता कि कौन-कौन उसे कितना-कितना प्यार करता है। वह बहुत कम लिखता था, पर चूंकि अच्छा लिखता था और उसके स्वभाव में एक छा जाने वाली गर्मजोशी थी, इसलिए हम सब उसकी सनकों के बावजूद उसे पसन्द करते थे।

इलाहाबाद आ कर अपना सामान वीरेन के यहाँ रख कर वह फौरन मेरे यहाँ आया और बोला, ‘मुझे किसी सर्जन से मिलना है।’ मैं हैरान। दरयाफ्त करने पर पता चला कि रास्ते में उसके दायें हाथ की तर्जनी थोड़ी-सी छिल गयी है, उसे दिखाना है। मैं हंसा। यह भी आलोक की अदा थी। जहां चार आने के बैण्ड-एड से काम चल जाता, वहाँ वह विधान बाबू से नीचे के किसी डाक्टर की बात ही नहीं करता था। मैंने देखा उसने उंगली पर बैण्ड-एड लगा रखा था जो मैला हो गया था और बदल दिया जाना चाहिए था। मैं उसे मोटरसाइकिल पर बिठा कर सिविल लाइन्स में कोहिनूर केमिस्ट के यहाँ ले गया और मैंने उनसे बैण्ड-एड की दो पट्टियां देने के लिए कहा।

कोहिनूर केमिस्ट के दो मालिक थे - एक पंजाबी और एक पारसी। उस समय पंजाबी सज्जन काउण्टर पर ग्राहकों को सामान दे रहे थे। पारसी महोदय की पाली नहीं शुरू हुई थी। दोनों मालिकों का स्वभाव एक-दूसरे के उलट था। पारसी महोदय काम-से-काम रखनेवाले, टका-सा जवाब देने वाले, कुछ रूखे-से शख्स थे और पंजाबी महोदय सदय और सौजन्य-सम्पन्न। आलोक का धाराप्रवाह प्रवचन जारी था। उन दिनों वह कुछ-कुछ वैसा ही लगता था जैसा ‘पायरेट्स आफ द कैरिब्बियन’ में कैप्टन स्पैरो की भूमिका में जानी डेप; मेरी मां उसे संपेरा कहा करती थी; इसलिए वह लोगों का ध्यान सहज आकर्षित करता था। हमें बैण्ड एड देते हुए कोहिनूर केमिस्ट के मालिक उन पंजाबी सज्जन ने जब सहज ही आलोक की उंगली की तरफ हाथ बढ़ाया तो उसने हाथ पीछे खींचते हुए उन्हें झिड़क दिया। वे हक्का-बक्का आलोक को देखते रह गये। तब आलोक ने स्पष्ट किया कि वे महोदय जाने क्या कुछ छूते रहे होंगे और उनके हाथ डिसइन्फेक्ट नहीं हैं। इससे संक्रमण हो जाने का खतरा है। वगैरा, वगैरा।

उन्हें छोटा-सा भाषण पिला कर आलोक ने उंगली मेरी तरफ बढ़ायी कि लो, पट्टी तुम बदल दो। उसने इस बात की फिक्र नहीं की कि मेरे हाथ भी तरह-तरह की चीजें छूते रहे थे, मैं मोटरसाइकिल चला कर आया था और मेरे हाथ भी गन्दे हो सकते थे। लेकिन यह आलोक की अदा थी। वह इस छोटे-से प्रसंग को भी स्मरणीय और सुनाने लायक बना कर अपनी स्मृतियों के "रेपर्त्वार" में जोड़ लेना चाहता था। जैसा कि बाद में उसने और भी कई प्रसंगों के सिलसिले में किया, जब उसी प्रवास के दौरान उसे हल्का-सा बुखार हुआ और मेरे पिता उसका हाल-चाल पूछने गये या फिर एक बार उसके साथ टहलते हुए उसे वीरेन के यहाँ पहुंचाते हुए वे छड़ी से गली के कुत्तों को भगाते रहे। बाद में कई बरसों तक आलोक इस बात का जिक्र करता रहा कि अश्क जी उसे कितना प्यार करते हैं कि कैसे वे उसकी मिज़ाजपुर्सी के लिए आये, आदि आदि।

खैर, यह इलाहाबाद में आलोक का पहला दिन था। अगले दिन तक उसने वीरेन के मालिक मकान गुप्ता जी और उनके बड़े भाई और नीचे के किरायेदार पर ही नहीं, बल्कि गली के बाहर खुल्दाबाद के नुक्कड़ पर पदारथ पंसारी और प्रकाश पानवाले पर भी यह रोब गालिब कर दिया कि वह कवि हैं। यहाँ तक कि नीचे अगर बड़े गुप्ता जी के यहाँ कोई बच्चा रोता तो आलोक भागा-भागा जाता और इसरार करता कि बच्चे को फौरन बहला कर चुप कराया जाय, बच्चे का रोना उसे बहुत विचलित करता है। अपना चैन हराम न होने देने के लिए आलोक दूसरे का चैन हराम करने से कभी गुरेज न करता था।

चूंकि आलोक पहली बार इलाहाबाद आया था इसलिए उसकी कविताएं सुनने के लिए एक गोष्ठी रखी गयी। जहां तक मेरा खयाल है गोष्ठी गंगानाथ झा छात्रावास में रखी गयी थी, जहां किसी जमाने में वीरेन और रमेन्द्र रह चुके थे। इस मौके पर हम सब तो थे ही, अश्क जी और विजयदेव नारायण साही भी आलोक की कविताएं सुनने आये थे। आलोक हिन्दी के कुछ गिने-चुने लोगों में से है, जिन्हें अपनी कई-कई पृष्ठ लम्बी कविताएं कण्ठस्थ हैं। उसका सुनाने का अंदाज़ भी बहुत प्रभावशाली था। उस अवसर पर उसने अपनी प्रसिद्ध कविताएं ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’ तो सुनायीं ही, एक अप्रकाशित कविता ‘रात’ भी सुनायी जिसकी कुछ शुरूआती पंक्तियां मुझे आज तक याद हैं : "रात, रात, तारों भरी रात मैं तुझे बोलता हूं..." जब वह कविताएं सुना चुका तो उनकी चर्चा के दौरान साही जी ने कहा कि ‘रात’ सुन कर उन्हें युवा शमशेर की याद हो आयी है। आलोक ने सबकी बातों को खामोशी से सुना और उसके बाद आज तीस साल से ऊपर होने को आते हैं, उसने कई कमजोर कविताएं भी छपायीं-सुनायीं, लेकिन ‘रात’ का जिक्र तक नहीं किया। महज इसलिए कि साही जी ने ‘रात’ के सिलसिले में ‘युवा शमशेर’ की चर्चा कर दी थी। मैंने आत्म-छवि के प्रति इतना सचेत कवि हिन्दी में दूसरा नहीं देखा, क्योंकि और कोई कारण मुझे नज़र नहीं आता। यही हाल ‘ताशा बज रहा है’ के साथ था, जिसका जि़क्र कई बार हुआ, पर मैंने उसे कभी नहीं सुना, न आलोक ने उसे प्रकाशित किया।

बहरहाल, आलोक भी आया और इलाहाबाद को रौनक-अफरोज करके, याद करने लायक ढेर सारी बातें पीछे छोड़ कर चला गया।
(जारी)

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