Wednesday, June 8, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की तीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३०



मित्रता की सदानीरा - ९

भोपाल के उस पहले प्रवास का बस इतना ही मुझे याद है। उसके बाद चूंकि मैं अगले दो-तीन साल के अर्से में कई बार भोपाल गया, इसलिए हर यात्रा के प्रसंगों को अलग-अलग कर पाना मुश्किल है। हां, कुछ चीजें अब भी मेरी स्मृति में दर्ज हैं, मिसाल के लिए सितंबर 1976 में साहित्य अकादमी की एक अनुवाद वर्कशाप में भोपाल जाना और वर्कशाप ख़त्म होने पर सामान उठा कर राजेश के यहाँ चले आना।...5 मई, 1976 को ‘इसलिए’ का प्रकाशन, जब अशोक जी के साथ राजेश की खटपट कुछ ज़्यादा ही नुमायां हो गयी थी। (बात यह थी 1972 में सीधी के जिलाधीश पद से संस्कृति विभाग के सचिव के रूप में भोपाल आने के बाद अशोक वाजपेयी ने कई मोर्चे एक साथ खोल लिये थे। इनमें से एक मोर्चा ‘पूर्वग्रह’ नाम की पत्रिका था, जिसमें वे चुन-चुन कर नये कवियों पर, ख़ास तौर पर वामपन्थी रूझान रखनेवालों पर, चोट कर रहे थे। इससे अच्छी-खासी खलबली मची हुई थी। ‘इसलिए’ की योजना के पीछे भी यही इरादा था कि कुछ ऐसी तूतियां भी मैदान में लायी जायें तो अशोक जी के नक्कारखाने के शोर-शराबे में सुनायी दे सकें।)
इसी तरह मुझे गर्मियों की एक दोपहर याद आती जाती है जब इन तीन अविवाहित तिलंगों में से एक -- राजेन्द्र -- ने आशा से शादी करने का फैसला किया था। प्रेम विवाह था और शायद कुछ अड़चन भी थी, इसलिए शादी अदालत में हो रही थी। जज ने दोपहर का समय दिया था और ऊपर पहाड़ी पर ईदगाह हिल्स में अपने मकान पर बुलवाया था। राजेश आशा के अभिभावक के तौर पर पेश हो रहा था और मैं राजेन्द्र के। खैर साहब, हम सब पैदल ही ईदगाह हिल्स पर जज के निवास पहुंचे। कुछ देर हमें बैठाने के बाद जज ने शायद बरामदे ही में मेज लगवायी थी और भावहीन चेहरे से विवाह की सारी औपचारिकताएं निपटायी थीं। आम तौर पर ऐसे में सारा काम पूरा हो जाने के बाद जज नव-विवाहित जोड़े को शुभकामनाएं देता है। लेकिन वह जज इतना मनहूस था कि मातमी चेहरा लिये बैठा रहा और हम लोग बाहर लान में चले आये। बेहद गरमी थी, उसने पानी तक न पूछा था, बाहर बगीचे के नल से थोड़ी-बहुत प्यास बुझा कर हम सब-दूल्हे-दुल्हिन समेत, पैदल ही न्यू मार्केट पहुंचे थे -- श्लथ, रिक्त और लगभग निष्प्राण। सोचा गया कि राजेन्द्र और आशा को किसी अच्दे होटल में खाना खिलाया जाये। लेकिन टी.टी. नगर का पूरा इलाका छान मारने पर तब कोई होटल नहीं मिला था और लाचार हो कर हम लोग रात को न्यू मार्केट के उसी ढाबे में पहुंचे थे, जहां अक्सर खाना खाया करते थे।
तीस-पैंतीस बरस बीत गये हैं। अब तक नरेन्द्र और राजेश भी शादी-ब्याह करके बड़े शादी-ब्याह के लायक बच्चों के बाप बन गये हैं, शायद दादा-नाना भी। इन बरसों के दौरान लन्दन जाने से पहले और लौटने के बाद भी कई बार भोपाल जाना हुआ है, लेकिन उन पहली-पहली दो-तीन यात्राओं की याद अब तक उस सुखद सपने की तरह मन में बसी हुई है, जिसके ब्यौरे भले ही एक-दूसरे से अलग-अलग न हों, पर जो आपस में गुंथ कर तन-मन को सुख से भर देते हैं।

ज्ञान ने ही मुझे उज्जैन में श्रीराम तिवारी और इन्दौर में सरोज कुमार के भी पते दिये थे और उन्हें पत्र भी डाल दिये थे।
श्रीराम उन दिनों एम.ए. के. अन्तिम वर्ष में था और साहित्य में रूचि होने के कारण ‘पहल’ पढ़ता था, जिसके जरिये ज्ञान से उसका पत्रचार शुरू हो गया था। उसने बड़ी आत्मीयता से मुझे अपने घर ठहराया था। घर ऊपरी मंजिल पर था और वहाँ मुझे एक अजीब-से मराठीपन का एहसास हुआ था। मेरा किशोरावस्था का मित्र सुहास मराठी था और उसके घर जाने पर भी ऐसा ही वातावरण और परिवेश मिलता था। श्रीराम ने जी भर कर मुझे उज्जैन की सैर करायी थी -- शिप्रा का तट, हर सिद्धी और महाकाल के मन्दिर, शहर के बीचों-बीच बड़े गणेश का मन्दिर और उससे लगा गणिकाओं का इलाका, भर्तृहरि की गुफा, कालियादह पैलेस, सान्दीपनि का आश्रम और दूसरी देखने लायक जगहें। श्रीराम के साथ ही मैं विश्वविद्यालय भी गया था और कालिदास अकादमी भी जहां प्रभात जी (प्रभात कुमार भट्टाचार्य) से मुलाकात हुई थी। उज्जैन तब छोटी-सी जगह थी और बड़ी आसानी से हम इन जगहों पर घूमते-फिरे थे। उन्हीं दिनों पवन कुमार मिश्र और प्रमोद त्रिवेदी ने उज्जैन से ‘ज़मीन’ नाम की कविता पत्रिका निकालनी शुरू की थी। उनसे भी मित्रता हो गयी।
लेकिन उज्जैन की उस पहली यात्रा का सबसे यादगार पहलू प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री वी. एस. वाकणकर से हुई मुलाकात से जुड़ा है। श्रीराम तिवारी और उसके साथी उन दिनों चित्रकला में भी दिलचस्पी रखते थे। उसने मुझे बताया था कि गुरू जी यहाँ कला की कक्षाएं चलाते हैं, जिनमें वह जाता है। गुरू जी कौन? तो पता चला था कि भीमबेटका की गुफाओं की खोज से प्रसिद्धि पानेवाले वी.एस. वाकणकर। श्रीराम की बातों से कुछ ऐसा भी आभास मिलता था कि वाकणकर का झुकाव राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर था। मैं चूंकि बहुत पहले ही पुरूषोत्तम नागेश ओक जैसे हिन्दुत्ववादियों की चालें और विकृत इतिहास बोध के खिलाफ था, चुनांचे श्रीराम ने जब विश्वविद्यालय से रवाना होने से पहले मेरे सामने प्रस्ताव रखा था कि मैं चल कर वाकणकर साहब से मिल लूं तो सहज ही मेरे मन में अनिच्छा का भाव उपजा था। फिर जाने क्या सोच कर मैं तैयार हो गया था।
वाकणकर साहब हमें उज्जैन विश्वविद्यालय के नृतत्वशास्त्र विभाग ही में मिले थे -- लम्बे, ऊंचे, गोल चेहरे और मूंछों वाले, निक्कर और कमीज पहने वे एक बड़े से लगभग 30 गुना 60 के आयताकार कमरे में मौजूद थे जो तरह-तरह की उत्खनित हड्डियों, मृद्भाण्डों, प्रस्तर युग के उपकरणों, मूर्तियों और दूसरी सामग्री से अटा पड़ा था। वाकणकर साहब का राजनैतिक रूझान भले जनसंघी रहा हो, लेकिन उनके नृतत्वशास्त्रीय काम ने उनमें एक सहज तार्किकता और वैशानिकता जिलाये रखी थी। वे बहुत सहज ढंग से मिले थे; वे जाने-माने, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त नृतत्वशास्त्री थे और मैं हिन्दी का युवा कवि था, जिसकी तब तक कुल जमा दो कविता पुस्तकें छपी थीं। मैंने लगभग दो घण्टे उनके साथ गुजारे थे और चूंकि नृतत्वशास्त्र में मेरी दिलचस्पी थी, इसलिए बहुत कुछ नया भी उनसे जानने को मिला था। मिसाल के लिए अपनी छोटी-सी मेज के पास कुर्सी पर बैठे-बैठे उन्होंने फर्श से एक बड़ी-सी हड्डी उठायी थी, जाने किसी मनुष्य की जांघ की हड्डी थी या किसी जानवर की, और कहा था -- देखिए यह हड्डी एक लाख साल पुरानी है। उनके कमरे के बीचों-बीच लम्बी-लम्बी दो-तीन मेजें एक सीध में रखी हुई थीं, जिन पर तरह-तरह की सामग्री बेतर्तीबी से रखी हुई थी, पत्थर, मनके, हड्डियां, मूर्तियों के भग्नावशेष। कमरे की दीवारों के साथ-साथ मूर्तियां रखी थीं। कुछ फर्श पर, कुछ चौकियों पर। बाकी फर्श जैसा मैंने कहा तरह-तरह की उत्खनित सामग्री से भरा पड़ा था। कुछ देर बैठ कर बतियाने के बाद वाकणकर जी मुझे वह पूरा संग्रहालय-नुमा कमरा घूम कर दिखाने लगे। एक जगह मेज़ पर कुछ नीले-मायल गहरे सलेटी रंग के पत्थर रखे थे। उन्होंने इशारा करके बताया कि ये प्रस्तर युग के औजार हैं। मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने कभी जांचा था कि ये औजार काम भी करते थे या नहीं। उन्होंने तत्परता से कहा -- आइए, देखते हैं। फिर एक पत्थर उठा कर बताया कि यह कुल्हाड़ी का काम देता रहा होगा। वहीं से किसी पेड़ की पतली-सी डाल उठा कर उन्होंने उसमें चीरा लगाया और पत्थर को चीरे के बीच फंसा कर डोरी से कस दिया। फिर एक और लकड़ी उठा कर उन्होंने पत्थर की उस कुल्हाड़ी से उसे छीलना शुरू किया। थोड़ी-सी छीलन उतरने पर वे सन्तोष से मुस्कराये। मुझे उनकी यह चेष्टा बहुत अच्छी लगी। सच को आजमा कर देखने की कोशिश सरीखी।
जब हम मूर्तियों को देख रहे थे तो मैंने विदिशा के वराह की मूर्ति का जिक्र करते हुए भारतीय मूर्ति कला पर बात छेड़ी और पूछा कि हमारे यहाँ स्त्रियों की मूर्तियों में स्तन इतने बड़े-बड़े क्यों तराशे जाते हैं। वाकणकर साहब ने फौरन जवाब दिया कि भारतीय परम्परा स्त्रियों को मातृ रूप में देखने की है; वे जगदम्बा का रूप हैं और मां को दर्शाने के लिए ही स्तन बड़े रखे जाते हैं, क्योंकि मां की एक प्रमुख भूमिका बच्चे को दूध पिलाना है। शिव-पार्वती की रति-मुद्राओं की प्रतिमा बनाते हुए भी यह आधारभूत सत्य भारतीय शिल्पकार के मानस से ओझल नहीं होता कि पार्वती का एक रूप जगदम्बा का भी है। हम कुछ और आगे बढ़े तो मेरी नजर गोल चेहरे और बड़ी-बड़ी मूंछों वाले और अंगरखे जैसा वस्त्र और घुटनों तक के जूते पहने, पगड़ी बांधे पुरुष की एक मूर्ति पर गयी।
पूछने पर वाकणकर साहब ने बताया कि वह सूर्य की प्रतिमा थी। मैंने उस व्यक्ति के सरापे पर टिप्पणी की कि वह मुझे कुषाण युग का कोई राजपुरुष लग रहा था। बचपन में इतिहास की किताब में देखी गयी एक मुद्रा में कनिष्क कुछ ऐसे भेस में भी दिखाया गया था। वाकणकर ने सहमति प्रकट करते हुए मुझे समझाया कि मूर्तिशिल्प कुषाण काल या उसके कुछ बाद का है, लेकिन है सूर्य का। मैंने उनसे पूछा कि इसका प्रमाण क्या था। उन्होंने जवाब में संस्कृत का एक श्लोक दुहरा दिया, जिसमें सूर्य के लक्षण दिये हुए थे और वृषभ स्कन्धों -- बैल जैसे कन्धों -- का जिक्र था।
चलते-चलते वाकणकर साहब ने मुझे अपने एक प्रकाशित निबंध की हस्ताक्षरित प्रति दी थी और मैं हालांकि जाते और आते समय उनके राजनैतिक रूझान से अहसमत था, लेकिन उन पूर्वाग्रहों से काफी हद तक मुक्त हो चुका था, जो उनसे मिलने जाते समय मेरे मन में थे। यही नहीं, बल्कि मुझे भारतीय कला परम्परा की भी कुछ ऐसी जानकारी मिली थी, जिसे अपने विषय में पारंगत व्यक्ति ही दे सकता था।
(जारी)

2 comments:

  1. किश्तों में सुन्दर और सार्थक संस्मरण. यही तो हमारी धरोहर हैं..साधुवाद.


    ********************
    कभी 'यदुकुल' की यात्रा पर भी आयें !!

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  2. ज़रूर, आप बुलायें हम अवश्य आयेंगे, संस्मरण आप को अच्छा लगा इससे ख़ुशी हुई

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