Monday, October 25, 2010

समाधान की नक़ाब ओढ़े संहार उर्फ़ दोज़ख़ में बदली हुई जन्नत

जैसे-जैसे हमारे देश में आन्तरिक विग्रह बढ़ता जा रहा है और लूट-खसोट का बाज़ार अपने उरूज़ पर है, जिसकी सबसे नुमायां मिसालें हैं हाल के कौमनवेल्थ खेल और पिछले कई वर्षों से छत्तीसगढ़, झारखण्ड, आन्ध्र, महाराष्ट्र, उड़ीसा और बंगाल के आदिवासी इलाक़ों में सरकार की मदद से बड़े पूंजीवादी निगमों के दमन और अत्याचार का कसता शिकंजा, जैसे-जैसे हमारे देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा महंगाई, बेरोज़गारी और बुनियादी अधिकारों के छिनने का शिकार हो रहा है. जैसे-जैसे हमारे देश में अमीर इतने अमीर हो गये हैं कि उनकी दौलत साधारण गणित के बाहर चली गयी है और ग़रीब इतने ग़रीब कि वे भी शुमार के परे पहुंच गये हैं. जैसे-जैसे हमारे देश में कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को परीकथाओं के लोक में धकेल दिया गया है और सरकार ने उन लोगों के प्रति अपनी सारी ज़िम्मेदारियों से हाथ धो लिये हैं, जिनका प्रतिनिधित्व करने का वह दावा करती है. और जैसे-जैसे हमारे देश में स्वर्ग ही की तरह लोकतन्त्र भी इहलोक की जगह परलोक की चीज़ हो गया है जिसके मिलने की सम्भावना शायद मरणोपरान्त ही है, अगर है तो -- वैसे-वैसे कश्मीर का सवाल और अयोध्या के प्रस्तावित राम मन्दिर का प्रश्न -- ये दो मसले और सभी सवालों को पीछे छोड़ कर आगे गये हैं और इनके बारे में किसिम-किसिम के बयान और फ़तवे दिये जाने लगे हैं जबकि ये मसले स्थायी और न्यायपूर्ण समाधान की मांग करते हैं.

जहां तक अयोध्या का मसला है, उस पर हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने जो फ़ैसला दिया है, उसने आस्था को आधार बना कर तथ्य और तर्क को परे रखते हुए, होशमन्द-से-होशमन्द आदमी को चकरा दिया है. इस फ़ैसले की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि न्यायाधीश तो जानते ही थे कि इस फ़ैसले को चुनौती दी जायेगी, अब आम लोग भी जानने लगे हैं कि इस फ़ैसले से सवाल सुलझेगा कम, उलझ अलबत्ता और भी जायेगा. खुश हैं तो सिर्फ़ संघ परिवार के लोग जिनकी पिटी हुई नौटंकी को इस फ़ैसले से नयी ज़िन्दगी और नयी मीयाद मिल गयी है. उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं. वे बाबरी मस्जिद की विवाद-ग्रस्त ज़मीन के दो-तिहाई हिस्से पर (निर्मोही अखाड़े के साथ) मन्दिर बना सकते हैं, अदालत के बाहर सुन्नी वक्फ़ बोर्ड पर दबाव बना कर उसे मस्जिद बनाने से उपराम कर सकते हैं या उस ज़मीन को मन्दिर हेतु देने के लिए राज़ी करने की कोशिश कर सकते हैं, या फिर सर्वोच्च न्यायालय में जा सकते हैं. इस फ़ैसले के बल पर वे हिन्दुओं में अपनी गिरी हुई पैठ को फिर दुरुस्त करने की कोशिश तो करेंगे ही. सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ज़रूर सांसत में है, क्योंकि उसकी स्थिति दांतों के बीच जीभ जैसी है. जगह का जैसे बंटवारा करने की जुगुत न्यायाधीशों ने बैठायी है, उसके हिसाब से मस्जिद तो बनेगी नहीं और ऐसी कोई भी कोशिश अप्रियता ही पैदा करेगी और उसे छोड़ देना जैसा कि दबाव हिन्दू कट्टरपन्थियों और उदार धर्म-निरपेक्षतावादियों द्वारा डाला जा रहा है, उसे मान लेना अपनी सारी टेक छोड़ देने के बराबर होगा और वह भी किसी लज़्ज़त के बग़ैर और मसले के किसी मुस्तक़िल हल तक पहुंचे बिना. सो, सर्वोच्च न्यायालय जाना ही एकमात्र उपाय बचता है. यों, अब तक के सारे घटनाक्रम के बाद न्यायालय पर कितना भरोसा मुसलमानों को रह गया होगा, यह सोचने की बात है.

रहा सवाल कश्मीर का, तो यह मसला भी अपने ताज़ा दौर में लगभग उतना ही पुराना है जितना अयोध्या का मसला. कश्मीर में क़बाइलियों का हमला 1948 में हुआ था तो बाबरी मस्जिद के सिलसिले में मुक़द्दमा भी 1948 में ही दायर हुआ और अयोध्या में षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति न्यायालय में विचाराधीन वाद को प्रभावित करने की ख़ातिर 1949 में रखी गयी जिसका हवाला सब-इन्सपेक्टर की रिपोर्ट में है और जिसका संज्ञान तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले में नहीं लिया गया है. सच तो यह है कि ये दोनों ही मसले आधुनिक हिन्दुस्तान की तारीख़ में सीधे-सीधे उस विराट अनर्थकारी घटना के परिणाम हैं जिसे हिन्दुस्तान का बंटवारा कहते हैं.

वैसे तो किसी भी भूभाग में सीमा-निर्धारण कभी अन्तिम नहीं होता. देशों के इतिहास में सत्ता के बदलते समीकरणों के अनुसार भूभाग इधर-उधर होते रहे हैं, होते रहते हैं, 1945 में बांटा गया जर्मनी आज एक है. लेकिन दो राष्ट्रों के सिद्धान्त पर 1947 में हिन्दुस्तान का बंटवारा ऐसा बदक़िस्मती-भरा हादसा है जिसकी मिसाल हमारे इतिहास में सदियों से नहीं मिलती. दो राष्ट्रों के इस नक़ली और जन-विरोधी सिद्धान्त पर देश को बांटने का फ़ैसला जितने ख़ून-ख़राबे और जितनी मानवीय पीड़ा की क़ीमत पर, बांटे जा रहे लोगों की इच्छा-अनिच्छा जाने और उसका ख़याल किये बग़ैर, और आगे भविष्य में विग्रह और वैमनस्य के आधार पैदा करते हुए जिस निर्णायक ढंग से किया गया वह पिछले तीन-चार हज़ार साल के इतिहास में अभूतपूर्व है. इस फ़ैसले को रूप देने वाले तो हिन्दुस्तान की जनता के तईं गुनहगार हैं ही, इसे तस्लीम करने वाले नेता भी उतने ही गुनहगार हैं. ऐसी हालत में यह सवाल उतना सीधा नहीं रह जाता कि कश्मीर (या देश का कोई भी हिस्सा) हिन्दुस्तान का अभिन्न और अखण्ड अंग है या नहीं, था या नहीं, और रहना चाहिए या नहीं और अगर नहीं रहना चाहिए तो फिर उसके अस्तित्व का क्या स्वरूप होना चाहिए.

इसमें कोई शक नहीं है कि हिन्दुस्तान की सरकार ने एक लम्बे समय तक कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए कुछ खास क़िस्म के "पैकेज" देने का बन्दोबस्त किया हुआ है. लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि वहां के आम लोगों के हालात बद-से-बदतर होते चले गये हैं और वहां अरसे से असन्तोष पनपता रहा है जिसका कोई मुकम्मल समाधान नहीं किया गया. इससे भी कोई मुकर नहीं सकता कि एक बहुत लम्बे अरसे से केन्द्रीय सरकार ने कश्मीर में सेना तैनात कर रखी है और "सैन्य बल विशॆष अधिकार क़ानून" वहां लागू कर रखा है. 1989 से अब तक लगभग बीस बरसों में हज़ारों कश्मीरी लोग मार दिये गये हैं या फ़ौजों और अन्य सुरक्षा बलों द्वारा लापता कर दिये गये हैं. ख़ुद भारत सरकार ने माना है कि अब तक 47,000 लोग जानें गंवा बैठे हैं जिनमें फ़ौजियों और सुरक्षाकर्मियों की संख्या 7,000 है और इनमें लापता लोगों की तादाद शामिल नहीं है. अन्य सूत्रों का कहना है कि मारे गये और लापता लोगों की संख्या 1,00,000 से ऊपर है. चूंकि फ़ौजियों और सुरक्षाकर्मियों के बारे में आंकड़े ग़लत नहीं हो सकते, इसलिए हैरत होती है कि वहां किस पैमाने पर और किस क़िस्म की कार्रवाई हो रही है. यह कैसा समाधान है जो लोगों को नेस्त-नाबूद करके किया जा रहा है और क्यों इसे जनसंहार नहीं कहा जाना चाहिए ?
कश्मीर में हिन्दुस्तानी फ़ौज का रिकार्ड बहुत ख़राब रहा है. ऐसा कोई अमानवीय कृत्य नहीं है जो उसने वहां किया हो -- हत्या से ले कर बलात्कार तक. ज़ाहिर है कि केन्द्रीय सरकार ने ख़ुद प्रकारान्तर से यह मान लिया है कि कश्मीर में उसकी फ़ौज हमलावर फ़ौज की तरह उपस्थित है. यहां तक कि आम हिन्दुस्तानियों को भी महसूस होने लगा है कि तीस से भी अधिक वर्षों तक देश के किसी हिस्से और उसके वासियों को केवल फ़ौज के बल पर क़ाबू में रखना एक तरह से उस हिस्से और उसके वासियों पर युद्ध थोपने के बराबर है. कभी अंग्रेज़ों की तो कभी पकिस्तान की साज़िशों का हवाला दे कर सरकार ने कश्मीर के स्थायी राजनैतिक समाधान को टाले रखा है. शायद ऐसी ही चालें पकिस्तान के जन-विरोधी, अलोकप्रिय हुक्मरान भी अपनी जनता के प्रति अपने वादों को निभा पाने के कारण असली मुद्दों से ध्यान बंटाने की ख़ातिर करते रहे हैं. सच तो यह है कि दोनों देशों की सरकारें अपने बाशिन्दों के तईं समान रूप से गुनहगार हैं और हिन्दुस्तान की सरकार लोकतन्त्र का जितना राग अलापे, लोकतन्त्र और जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की दृष्टि से उसका रिकार्ड अनन्त दाग़ों और धब्बों से भरा है.
ऐसी हालत में अगर कश्मीरी जनता इस अन्तहीन सैनिक शासन से तंग कर आज़ादी की मांग करने लगी है तो इसमें हैरत कैसी ?

अब तक के मानव इतिहास में आत्म-निर्णय का अधिकार देशों का बुनियादी अधिकार होता है. इसी अधिकार के चलते अतीत में किसी मोड़ पर महाराष्ट्र और सौराष्ट्र जैसी राष्ट्रिकताओं ने हिन्दुस्तान में रहने का फ़ैसला किया था. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हिन्दुस्तान अनेक राष्ट्रिकताओं, भाषाओं, धर्मों, जातियों, विश्वासों और रहन-सहन की शैलियों का देश है. यह उसकी ख़ासियत है. ऐसी स्थिति में कश्मीर हो या पूर्वोत्तर के प्रान्त, उनमें पनपने वाले असन्तोष का निराकरण फ़ौज के बल पर नहीं किया जा सकता और नहीं किया जाना चाहिए. यहां तक कि पुराने नाम से पुकारूं तो जम्बू द्वीप के किसी भी हिस्से के स्वरूप और उसकी क़िस्मत का फ़ैसला इतिहास की गवाही के आधार पर और राजनैतिक ढंग से, जनता के आत्म-निर्णय के अधिकार को तस्लीम करके ही किया जाना चाहिए. 1947 में हमारे नेताओं ने अंग्रेज़ों के प्रति अपनी ग़ुलामाना ज़ेहनियत के चलते (जो, प्रधान मन्त्री के औक्सफ़ोर्ड भाषण को देखें तो, आज तक बरक़रार है) इस बुनियादी सिद्धान्त को ताक पर धर दिया जिसका ख़मियाज़ा हम आज तक भुगत रहे हैं.

जहां तक कश्मीर के मसले को उलझाने में बाहरी (कथित रूप से पाकिस्तानी) साज़िश वाली मान्यता का सवाल है, एक बुनियादी सत्य यह है कि जब तक आन्तरिक भेद-भाव और विभाजन हो तब तक कोई बाहरी ताक़त हावी नहीं हो सकती. इसलिए पाकिस्तान को पूरी तरह दोषी ठहराने की बजाय या फिर संघ परिवार और उन जैसे हिंसक मनुष्य-विरोधी कट्टरपन्थियों की चीख़-पुकार के आगे झुकने की बजाय और अपनी ख़ामियों का दोष कभी अंग्रेज़ों के, कभी पाकिस्तान के और कभी अमरीका के मत्थे मढ़्ने से बेहतर होगा कि हम और हमारी सरकार अपने गरेबान में झांके और हर मतभेद को फ़ौजी कार्रवाई द्वारा सुलझाने से गुरेज़ करे. राजनैतिक समस्याओं का राजनैतिक हल ही खोजना और लागू करना चाहिए. ऐसा करने पर ही यह हुआ है कि आज कश्मीरी जनता आज़ादी की मांग करने लगी है. हिन्दुस्तान से भी और पाकिस्तान से भी क्योंकि जहां तक कश्मीरियों का सवाल है ये दोनों देश एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हुए हैं.

अगर हम अन्धे नहीं हैं तो दीवार पर लिखी इबारत साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती है. कश्मीर को कभी "फ़िरदौस बर रुए ज़मीन" कहा गया था -- धरती पर स्वर्ग -- ज़मीन पर जन्नत. ज़रा देखिए कि हमने किस ख़ूबी से उस जन्नत को जहन्नुम में, फ़िरदौस को दोज़ख़ में तब्दील कर दिया है और इस गुनाह में हमारे हाथ भी उतने ही मुब्तिला हैं जितने पकिस्तान के.

जो हम अब भी चेते तो फिर इस देश को खण्डित होने से हम बचा नहीं पायेंगे और शायद कश्मीर ही वह पहला हिस्सा होगा जो किसी अंग्रेज़ी हुकूमत की साज़िश के कारण नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से हमारे निर्मम, क्रूर, अमानवीय, अन्यायपूर्ण और हिंसक व्यवहार के कारण अलग होगा और कोई भी ताक़त या तर्क इसे रोक नहीं पायेगा.

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