Monday, February 22, 2010

साहस का क़द पांच फ़ुट दो इंच

साहस का क़द पांच फ़ुट दो इंच
दोस्तो, आज भी मन कल ही के प्रसंग पर ठहरा हुआ है. आंखों के सामने बार-बार सीमा आज़ाद का चेहरा घूम जाता है. कन्धों तक कटे उसके घुंघराले बालों से घिरा उसका गोल मुखड़ा, खिले-खिले दांतों वाली उजली मुस्कान, औसत से कुछ कम, लगभग पांच फ़ुट दो इंच का क़द और पूरी चाल-ढाल में कूट-कूट कर भरा साहस.
कहने को कोई कह सकता है कि बस, इतने-से बूते पर यह युवती इतने बड़े तन्त्र से लोहा लेने निकली है. लेकिन यही तो अपनी जनता के लिए काम करने वालों की फ़ितरत है. वे जानते हैं कि एक चिनगारी पूरे जंगल में आग लगा सकती है, दस हज़ार मील की यात्रा एक क़दम से शुरू होती है और दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़ाई का आग़ाज़ कारागार की संकरी कोठरी से होता है जैसा कंस के सिलसिले में हुआ था और साहस क क़द नापा जाये तो वह लगभग पांच फ़ुट दो इंच बैठेगा. यक़ीन न आये तो संसार के कुछ बड़े-बड़े वीरों को देखें तो हम पायेंगे कि साहस और क़द-काठ का कोई ख़ास रिश्ता नहीं होता. शिवा जी, नेपोलियन, अकबर--सब छोटे क़द के योद्धा थे.
वैसे, सीमा और उसके साथियों ने जो बीड़ा उठाया है उसमें साहस और दृढ़ता की ख़ास ज़रूरत पड़ेगी. कारण यह कि दूसरी तरफ़ जो लोग हैं उन्हें किसी किस्म की दया-माया छू नहीं गयी. अब यही देखिए, जब से सरकार ने उदारीकरण और नयी आर्थिक नीतियां अपनायी हैं १ लाख ८० हज़ार किसान क़र्ज़ तले दब कर आत्महत्याएं कर चुके हैं और सत्ताधारियों के कान पर जूं भी नहीं रेंगी चाहे वे किसी भी रंग के हों, पूरे भगवा या फिर आधे. इसी बीच लाखों आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से बेदखल करने की योजनाएं बनायी जा रही हैं और वे भी किसी फ़िरंगी हुकूमत द्वारा नहीं, बल्कि अपने ही लोगों द्वारा. आख़िर, पी चिदम्बरम और मनमोहन सिंह को कौन होगा जो विदेशी कहेगा. यह बात अलग है कि हमारे आदरणीय प्रधान मन्त्री इंग्लैण्ड जा कर हमारे भूतपूर्व आक़ाओं को यह सनद दे आये हैं कि अगर वे यानी अंग्रेज़ न होते तो हिन्दुस्तान कभी तरक़्क़ी न कर पाता. ऐसा बयान आज तक किसी पूर्व प्रधान मन्त्री ने नहीं दिया था. ऐसी हालत में यह सोचने कि बात है कि राजद्रोह की अपराधी सीमा आज़ाद है या प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह जैसे लोग ?
यह बात भी बहुत से लोग शायद नहीं जानते कि अनाज और दालों और चीनी की क़ीमतों में ताज़ा महंगाई हमारे इन्हीं भूरे अंग्रेज़ों की देन है. एक मिसाल काफ़ी होगी. कल मैं अनाज के एक बहुत बड़े आढ़तिये के पास बैठा हुआ था. उसने बताया कि मौजूदा गड़बड़ी के पीछे और कोई नहीं, अपने "राष्ट्रवादी कांग्रेसी" नेता शरद पवार हैं. जब से उन्होंने खाद्य मन्त्री का पद संभाला है अनाज और दूसरी जिंसों की क़ीमतें आसमान छूने लगी हैं. जब उत्तर भारत में गेहूं की कमी थी तब पंजाब में गेहूं मुर्गी चारे के लिए दिया जा रहा था, अच्छा गेहूं. चीनी का भी कुछ ऐसा ही हाल है.
हम सुनते आये हैं कि अंग्रेज़ झूठे अभाव पैदा करके अकाल की स्थिति ले आया करते थे. लेकिन अपने शरद पवार तो ख़ालिस हिन्दुस्तानी आदमी हैं. या हो सकता है कि वे उन काले साहबों में शामिल हों जिनके बारे मॆं भगत सिंह ने चेतावनी दी थी कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद वे हम पर हुकूमत करने लगेंगे. क्या शरद पवार जिनकी कई चीनी मिलें हैं राज द्रोह के घेरे में नहीं आते ? जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाते हैं, जटिलता बढ़ती जाती है.
तो दोस्तो, यह सोचिए कि जो लोग इन मगर-मच्छों पर लगाम कसने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें मगर-मच्छों की यह जमात अगर राज द्रोही क़रार दे रही है तो यह स्वाभाविक ही है. वे सीमा आज़ाद और उन जैसे सैकड़ों जन-प्रेमियों के लिए ज़ंजीरें और बेड़ियों का ही बन्दोबस्त करेंगे. यह तो लडाई है एक तरफ़ जनता और सीमा आज़ाद जैसे लोग हैं, दूसरी ओर पी चिदम्बरम, मनमोहन सिंह और शरद पवार जैसे जन-द्रोही. याद रखिये कवि केदार की पंक्तियां --
कभी नहीं जनता मरती है, शासक ही मरते आये हैं...

Saturday, February 20, 2010

सलाख़ों के पीछे क़ैद स्वाधीनता
इरादा तो आज था कि अभय ने अपने ब्लौग-- निर्मल आनन्द-- में जो सवाल उठाया है : हिन्दी में सितारा कौन है ? -- उस पर कुछ विचार किया जाये, लेकिन आज एक ऐसी बात हुई कि आप से किसी और विषय की चर्चा करने को मन हो आया है.
आज हमारी युवा मित्र सीमा आज़ाद और उनके पति विश्वविजय की १४ दिन की रिमाण्ड की अवधि पूरी हो रही थी और उन्हें पुलिस फिर से रिमाण्ड में लेने के लिये अदालत में पेश करने नैनी जैल से लाने वाली थी. बात को आगे बढ़ाने से पहले मैं आपको यह बता दूं कि सीमा आज़ाद मानवाधिकार संस्था पी.यू.सी.एल. से सम्बद्ध हैं, साथ ही द्वैमासिक पत्रिका "दस्तक" की सम्पादक हैं और उनके पति विश्वविजय वामपन्थी रुझान वाले सामाजिक कार्यकर्ता हैं. अपनी पत्रिका "दस्तक" में सीमा लगातार मौजूदा जनविरोधी सरकार की मुखर आलोचना करती रही है. सीमा ने पत्रिका का सम्पादन करने के साथ-साथ सरकार के बहुत-से क़दमों का कच्चा-चिट्ठा खोलने वाली पुस्तिकाएं भी प्रकाशित की हैं. इनमें गंगा एक्सप्रेस-वे, कानपुर के कपड़ा उद्योग और नौगढ़ में पुलिसिया दमन से सम्बन्धित पुस्तिकाएं बहुत चर्चित रही हैं. हाल ही में, १९ जनवरी को सीमा ने गृह मन्त्री पी चिदम्बरम के कुख्यात "औपरेशन ग्रीनहण्ट" के खिलाफ़ लेखों का एक संग्रह प्रकाशित किया. ज़ाहिर है, इन सारी वजहों से सरकार की नज़र सीमा पर थी और ६ तारीख़ को पुलिस ने सीमा और विश्वविजय को गिरफ़्तार कर लिया और जैसा कि दसियों मामलों में देखा गया है उनसे झूठी बरामदगियां दिखा कर उन पर राजद्रोह का अभियोग लगा दिया.
वैसे यह कोई नयी बात नहीं है. जनविरोधी सरकारें सदा से यही करती आयी हैं. हाल के दिनों में मौजूदा सत्ताधारी कौंग्रेस ने जिस तरह देश को बड़े पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों गिरवी रखने के लिये क़रार किये हैं और कलिंगनगर, सिंगुर, नन्दीग्राम, लालगढ़, और बस्तर और झारखण्ड के आदिवासियों को बेदखल करना शुरू किया है, वह किसी भी तरह की आलोचना को सहन करने के मूड में नहीं है. और इसीलिये हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था लोकतंत्र को लम्बा अवकाश दे कर अपनी नीतियों के विरोधियों को कभी "आतंकवादी" और कभी "नक्सलवादी" या "माओवादी" घोषित करके जेल की सलाखों के पीछे ठूंसने का वही फ़र्रुख़ाबादी खेल खेलने लगी है. इस खेल में सब कुछ जायज़ है -- हर तरह का झूठ, हर तरह का फ़रेब और हर तरह का दमन. और इस फ़रेब में सरकार का सबसे बड़ा सहयोगी है हमारा बिका हुआ मीडिया. इसीलिए हैरत नहीं हुई कि सीमा की गिरफ़्तारी के बाद अख़बारों ने हर तरह की अतिरंजित सनसनीख़ेज़ ख़बरें छापीं कि ट्रक भर कर नक्सलवादी साहित्य बरामद हुआ है, कि सीमा माओवादियों की "डेनकीपर" (आश्रयदाता) थी और विश्वविजय माओवादियों के कमाण्डर हैं. यही नहीं, पुलिस और अख़बारों ने मिल कर ऐसा ख़ौफ़ का वातावरण पैदा करने की कोशिश भी की जिस से सीमा के परिवार और मित्रों का मनोबल टूट जाये.
अभय ने अपने ब्लौग मॆं पुस्तक मेले का ज़िक्र किया है. मज़े की बात है कि पांच फ़रवरी को उसी पुस्तक मेले में अभय, मैं और सीमा साथ थे और जिस साहित्य को पुलिस और अख़बार नक्सलवादी बता रहे हैं वे पुस्तक मेले से ख़रीदी गयी किताबें थीं.
बहरहाल, आज की तरफ़ लौटें तो सीमा और विश्वविजय की रिमाण्ड के चौदह दिन आज पूरे हो रहे थे और आज दोनों को अदालत में पेश होना था. हम ग्यारह बजे ही अदालत पहुंच गये. लगभग दो घण्टे के इन्तज़ार के बाद सीमा और विश्वविजय को अदालत में लाया गया. मुझे यह देख कर बहुत खुशी हुई कि दोनों इन चौदह दिनों में थोड़े दुबले भले ही हो गये थे लेकिन दोनों का मनोबल ऊंचा था. सीमा के चेहरे पर एक दृढ़्ता थी और विश्वविजय के चेहरे पर मुस्कान. सीमा हमेशा की तरह मुस्कराती हुई आयी और उसने गर्मजोशी से हाथ मिलाया. लगा जैसे सलाख़ों के पीछे क़ैद स्वाधीनता चली आ रही हो.
हम लोग काफ़ी देर तक सीमा से बातें करते रहे, बिना फ़िकर किये कि सरकार के तमाम गुप्तचर किसी-न-किसी बहाने से आस-पास मंडरा रहे थे और . जब हम आने लगे तो सीमा ने ख़ास तौर पर ज़ोर दे कर कहा कि उसे तो बयान देने की इजाज़त नहीं है, इसलिए वह पुलिस और मीडिया के झूठ का पर्दाफ़ाश नहीं कर पा रही, लेकिन मैं सब को बता दूं कि पुलिस की सारी कहानी फ़र्ज़ी है जैसा कि हम बार-बार देख चुके हैं
सो दोस्तो, यह रिसाला जैसा भी उखड़ा-उखड़ा है सीमा की बात आप सब तक पहुंचाने के लिए भेज रहा हूं. सीमा की रिमाण्ड की अर्ज़ी खारिज हो गयी है. २२ तारीख़ को उसे ज़मानत के लिए पेश किया जायेगा और आशंका यही है कि उसे ज़मानत नहीं दी जायेगी. आशंका इस बात की भी है कि स्पेशल टास्क फ़ोर्स सीमा और विश्वविजय को अपनी रिमाण्ड में ले कर पूछ-ताछ करें और जबरन उनसे बयान दिलवायें कि वे ऐसी कार्रवाइयों में लिप्त हैं जिन्हें राजद्रोह के अन्तर्गत रखा जा सकता है. हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां सब कुछ सम्भव है-- भरपूर दमन और उत्पीड़न भी और जन-जन की मुक्ति का अभियान भी. यह हम पर मुनस्सर है कि हम किस तरफ़ हैं. ज़ाहिर है कि जो मुक्ति के पक्षधर हैं उन्हें अपनी आवाज़ बुलन्द करनी होगी. अर्सा पहले लिखी अपनी कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं :
चुप्पी सबसे बड़ा ख़तरा है ज़िन्दा आदमी के लिए
तुम नहीं जानते वह कब तुम्हारे ख़िलाफ़ खड़ी हो जायेगी और सर्वधिक सुनायी देगी
तुम देखते हो एक ग़लत बात और ख़ामोश रहते हो
वे यही चाहते हैं और इसीलिए चुप्पी की तारीफ़ करते हैं
वे चुप्पी की तारीफ़ करते हैं लेकिन यह सच है
वे आवाज़ से बेतरह डरते हैं
इसीलिए बोलो,
बोलो अपने हृदय की आवाज़ से आकाश की असमर्थ ख़ामोशी को चीरते हुए
बोलो, नसों में बारूद, बारूद में धमाका,
धमाके मॆं राग और राग में रंग भरते हुए अपने सुर्ख़ ख़ून का
भले ही कानों पर पहरे हों, ज़बानों पर ताले हों, भाषाएं बदल दी गयी हों रातों-रात
आवाज़ अगर सचमुच आवाज़ है तो दब नहीं सकती
वह सतत आज़ाद है.

Saturday, February 13, 2010

बधाई हो

बधाई हो
बधाई हो, सब की मुराद बर आयी, मेरा नाम है ख़ान, सौरी माई नेम इज़ ख़ान, लगातार कामयाबी की मंज़िलों की तरफ़ बढ़ रही है, दर्शक अंधेरी से ले कर औस्ट्रेलिया तक फ़िल्म देखने के लिये बेक़रारी से लाइनें लगा कर शाहरुख़ से अपनी प्रतिबद्धता का इज़हार कर रहे हैं.
चूंकि शाहरुख़ विदेश में हैं इसलिए उनकी पत्नी गौरी फ़िल्म थिएटरों में घूम-घूम कर दर्शकों का हौसला बढ़ा रही हैं, उनका शुक्रिया अदा कर रही हैं, औस्ट्रेलिया में एक जगह लड़कियां शाहरुख़ की फ़िल्मों के गाने एक के बाद एक गा कर अपनी अक़ीदत का सबूत पेश कर रही हैं और इसी क़िस्म की दीवानगी दूसरी जगहों पर भी पेशे-नज़र होगी, इस का मुझे पूरा यक़ीन है.
करन थापर ख़ुश हैं कि पैसा वसूल हुआ, गौरी ख़ुश हैं कि उन्होंने अर्धांगिनी का फ़र्ज़ निभाया, दर्शक ख़ुश हैं कि फ़िल्म देख्ने को मिली, महाराष्ट्र सरकार ख़ुश है कि क़ानून और व्यवस्था ने उनके प्रति फ़र्ज़ अदा किया जिनके लिए वह बनायी गयी है यानी समाज के ऊंचे लोग जैसे शाहरुख़ ख़ान और करन थापर और वो सभी वितरक आदि जिनके हित इस फ़िल्म से जुड़े हैं, शाहरुख़ ख़ान ख़ुश हैं कि ज़िन्दगी में पहली बार राजनैतिक वक्तव्य देना इतना रास आया और कहना न होगा शिव सेना भी ख़ुश है कि एक बार फिर उसने साबित कर दिया कि २०वीं सदी में भले ही संघ या भाजपा के लोग श्रेष्ठ उपद्रवकारी माने जाते थे, २१वीं सदी में उसका कोई जोड़ नहीं है.
हमारे इलाहाबाद में इसी को कहते हैं नूरा कुश्ती, यानी सदे-बदे की लड़ाई. अगर यह खेला न हुआ होता तो ज़रा सोचिए, नज़ारा क्या मोड़ लेता. शाहरुख़ ख़ान आईपीएल पर बयान न देते तो कोई और शोशा उछालते, फ़िल्म की सफलता पर उनका दांव लगा हुआ था, लेकिन वो इतना कारगर शायद न होता क्योंकि ऐन मुमकिन है उसमें साम्प्रदायिकता और राजनीति का वो बघार न होता जो इस बार के बयानों में था और तब सिर्फ़ उनका अभिनय कसौटी पर होता और आप जानते ही हैं किसी इतर बल पर फ़िल्म की कामयाबी बहुत कुछ इत्तेफ़ाक़ की बात होती है.
उधर, अगर शिव सेना महज़ अपनी नाख़ुशी ज़हिर करती तो इम्कानात यही थे कि उसे भी अपनी असलियत का पता चल जाता. दीवाने तो फ़िल्म देखने जाते ही, पर लोग यह भी कहते कि शिव सेना का प्रतीक चिन्ह बाघ असली नहीं काग़ज़ का है. सो, पुट्ठे और बल्ले तो दिखाने ही थे.
आज सब कुछ वैसा ही है जैसा हमारी बम्बइया ( भाई, यहां मुम्बइया कहना अच्छा न लगेगा) फ़िल्मों में होता है -- हैप्पी एन्डिंग. अब मुन्ने को संभालिये, मुन्नी क हाथ थामिये और पत्नी के साथ फिर घाटकोपर या मुलुण्ड या गोरेगांव का रस्ता पकड़िए, कल ड्यूटी पर न जाना है.
रही वो बाक़ी की दुनिया, जिसका दर्द ऐसा शाहरुख़ और बाल ठाकरे ने बताया कि उनके जिगर में है, अब भी उसी अंधेरे में है, मल्टिप्ले़क्सों की चकाचौंध से बहुत दूर नन्दीग्राम, कलिंगनगर, सिंगुर, लालगढ़, झारखण्ड और बस्तर के नरक में, दसियों तरह के सुरक्षा बलों से घिरा, निहत्था, न्याय वंचित, असहाय, लेकिन धीरे धीरे असलियत को पहचानता हुआ, अन्दर की आग को धीरे धीरे शोलों में भड़क उठने के लिए तैयार करता हुआ. लेकिन जब वो बयान देगा तो ‍"काख़े-उमरा के दर-ओ-दीवार"* हिल उठेंगे और जब वो सड़क पर उतरेगा तो आम लोगों को धमकाने वाले शिव सैनिकों का कहीं अता-पता न होगा.

* सन्दर्भ : इक़बाल कि नज़्म " उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो, काख़े-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो, जिस खेत से दहक़ां को मयस्सर नहीं रोटी, उस खेत के हर ख़ोश:-ए-गन्दुम को जला दो, सुल्तानिये-जम्हूर का आता है ज़माना, जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आये मिटा दो.

Friday, February 12, 2010

क्या आप हिंसा में विस्वास करते हैं ?

पहले भी यह सवाल पूछा जाता रहा है और इधर के दिनों में तो और शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्या आप हिंसा में विस्वास करते हैं ? मानो पूछ रहे हों -- क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं ? सच पूछिये और ज़रा अपने अख़बारों की सतरों के बीच पढ़्ने कि कोशिश कीजिये तो आप खुले तौर पर या फिर दबे-छुपे, इस सवाल से ज़रूर रू-ब-रू होंगे. कथित आतंकवादियों या नक्सलियों या माओवादियों के बारे में गढ़ी-गढ़ायी या अतिरंजित ख़बरें छापते हुए या टेलिविज़न पर दिखाते हुए, अक्सर तान हिंसा पर टूटती है. और तब यह सवाल सीधे-सीधे या घुमा-फिरा कर पूछा जाता है और इसमें यह निहित होता है कि आम जनता तो हिंसा से नफ़रत करती है, यह तो गिने-चुने सिरफिरे या आधे पागल लोगों या इस्लामी कट्टरपन्थियों या विदेशी विचारधारा से प्रभावित राजद्रोहियों की करतूतें हैं. इसके बाद इस नाटक का दूसरा अंक शुरू होता है, जिसमें यह बताया जाता है कि भारत के इन दुशमनों ने भारत के ख़िलाफ़ गहरी साज़िश रचने का बीड़ा उठाया हुआ है. आतंकवादियों ने कश्मीर संभाल रखा है और नक्सल और माओवादी उड़ीसा, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में अपनी काली करतूतों को सरंजाम दे रहे हैं. चुनांचे अपने पी चिदम्बरम साहब वहां बड़े पैमाने पर फ़ौज भेज रहे हैं और उन्होंने इस अभियान को नाम दिया है औपरेशन ग्रीनहण्ट, गोया इन इलाक़ों की हरियाली के शिकार का इरादा हो. और वाक़ई ऐसा है भी. इस तरह कि वहां की सारी हरियाली के स्रोत ही को नष्ट करने की योजना है. उड़ीसा में बौक्साइट है और झारखण्ड में कच्चा लोहा, छत्तीसगढ़ में भी कच्चा लोहा है और २८ क़ीमती खनिज. अकेले बौक्साइट की क़ीमत ४ खरब डालर है यानी अंकों में ४०००००००००००० डालर. रहा कच्चा लोहा और बाक़ी के २८ खनिज, तो इनकी क़ीमत का अन्दाज़ा मुझे तो है नहीं पर अपने पी चिदम्बरम साहब को ज़रूर होगा जो होम मिनिस्टर बनने से पहले वित्त मन्त्री थे और इन खनिजों का खनन करने वाली एक कम्पनी वेदान्ता के कानूनी सलाहकार और ग़ैर कार्यकारी निदेशक जिस पद से उन्होंने शपथ लेने वाले दिन इस्तीफ़ा दिया था. लेकिन पी चिदम्बरम साहब यह कभी नहीं बताएंगे कि दरअसल ये आदिवासी हैं जो अपनी ज़मीनों और जीवन यापन के साधनों को बचाये रखने के लिये लड़ रहे हैं और उन्हें आदिवासी कह कर मारना शायद पी चिदम्बरम साहब के लिए भी भारी पड़ सकता है. सो उनके लिए यह ज़्यादा सुविधाजनक नाम ढूंढ लिया गया है. कोई भी हिन्दुस्तानी बख़ूबी यह जानता है कि पुलिस और फ़ौज और अर्ध सैनिक बल अपनी पर उतर आयें तो कैसा क़हर बरपा कर सकते हैं. वे जिस हिंसा को व्यवहार में लाते हैं उसे सिर्फ़ राजपत्रित आतंकवाद ही कहा जा सकता है. अब अगर ऐसी स्थिति में आदिवासी और दूसरे वंचित शोषित समुदाय प्रतिरोध में हथियार उठायें तो क्या तब भी यही पूछा जाता रहेगा कि आप हिंसा में विश्वास करते हैं या नहीं ? सोचो दोस्तो सोचो, सिर्फ़ सरकार और मीडिया के भरोसे मत रहो.

Thursday, February 11, 2010

एक अर्से बाद फिर से आप सब से मुखातिब हूं. इस बार कुछ सवालों के साथ. मुलाहिज़ा फ़र्माइये.
क्या हम एक पुलिस राज्य बनते जा रहे हैं ?
अगर बम्बई के ताज़ा हालात पर नज़र डालें तो कु़छ ऐसा ही लगता है. सारे शहर को जिस तरह बाल ठाकरे और उनके वीर बालक गाहे बगाहे बन्धक बना लेते हैं और लोगों को उनके रहमोकरम पर या फिर पुलिस के रहमोकरम पर रहना पड़ता है, उसे देखते हुए तो यही जान पड़ता है. अभी मराठी मानुष का मामला ठण्डा भी नहीं पड़ा था कि शाहरुख खान की नयी फ़िल्म पर हंगामा शुरू हो गया.टीवी पर तस्वीरें दिखाई जा रही हैं कि शिव सेना के कार्यकर्ता किस तरह ऊधम जोत रहे हैं, सम्भावित दर्शकों को डरा धमका रहे हैं, लोग किस तरह पुलिसिया इन्तज़ाम में फ़िल्म देखने जा रहे हैं, मौजूदा सत्तासीन सरकार कैसे शिखण्डी बनी मातुश्री के आगे बेबस है, का़नून और व्यवस्था मन्त्रालय की जगह मातुश्री से आदेश ले रही है. यहां मुझे शाहरुख खान की फ़िल्म की चिन्ता नहीं है. यह हंगामा भी उसकी मार्केट वैल्यू को बढ़ायेगा. करन जौहर भी अन्ततः सुखी होगा लेकिन आम जनता थोड़ा और दुबक जायेगी. उस पर खौफ़ कुछ और तारी हो जायेगा. मज़े की बात यह है कि शिव सेना के यही लोग उन ग़रीब कश्मीरियों की हिंसा को कोसते नहीं थकते, जिन्हों ने फ़ौज के ज़ुल्म से परेशान हो कर हथियार उठा लिये हैं. कशमीर में तो चलिये पाकिस्तान का भी हाथ हो सकता है, लेकिन छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ऊड़ीसा को क्या कहेंगे जहां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा बेदख़ल किये जा रहे आदिवासियों ने सशस्त्र प्रतिरोध शुरू कर दिया है और मीडिया से ले कर सरकार और विपक्ष तक सभी इन आदिवासियों को कभी तो नक्सलवादी बता रहे हैं और कभी माओवादी.
ऐसी स्थिति में दूसरा सवाल है क्या आप या मैं हिंसा में विश्वास करते हैं ? इस पर बात अगली बार.